चौराहा
मैं खड़ा हूँ —
एक चौराहे पर,
जहाँ से मेरा जीवन
हर दिशा में बाँटना चाहता है मुझे।
बचपन की गली पीछे छूटी है —
मिट्टी से सने घुटने,
माँ की झिड़की में छुपा प्यार,
और टूटी साइकिल के पहिए
अब सिर्फ स्मृतियाँ हैं।
एक रास्ता पिता की उम्मीदों की ओर जाता है —
जहाँ डॉक्टर, इंजीनियर, अफसर
बनने की कतार में
मेरे सपनों की लाशें दबी हैं।
दूसरा रास्ता दिल की ओर मुड़ता है —
जहाँ कविता, चित्र, संगीत और रंग
मुझे बुलाते हैं,
पर जेबें खाली हैं, और पेट भूखा है।
तीसरी राह बाजार से होकर जाती है —
जहाँ सफलता का मोल
चमचमाती घड़ियों और
मुस्कराते चेहरे की सेल्फियों में तौला जाता है।
पर वहाँ आत्मा अक्सर अकेली पाई जाती है।
और चौथा रास्ता—
वो भीतर उतरता है।
मन की गहराइयों में
एक बंसी बजती है,
जो पूछती है—
"क्या तू अपने लिए भी जिया?"
हर राह पर कोई खड़ा है—
माँ की चिंता,
पिता की खामोश निगाहें,
दोस्तों की हँसी,
समाज का व्यंग्य।
सब अपनी राह पकड़ने को कहते हैं।
मैं ठिठकता हूँ,
सोचता हूँ—
क्या कोई पाँचवाँ रास्ता भी है?
जहाँ मैं होऊँ... बस मैं।
ना आदर्शों से बँधा,
ना अपेक्षाओं से जकड़ा।
और फिर...
मैं अपनी छाया के साथ
एक राह बनाता हूँ—
जिस पर चलना लिखा तो नहीं था,
पर सही लगा।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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