उतरन
वह लड़की
आज फिर पहनती है
एक पुरानी सलवार—
जिसकी सिलवटों में
किसी और की युवावस्था
अब भी सांस लेती है।
रंग हलका पड़ गया है,
किनारे जरा उधड़ गए हैं,
पर धागों में
अब भी किसी और की
शादी की शाम टंकी हुई है।
चप्पल उसकी पांवों से बड़ी है—
चलते-चलते
हर मोड़ पर चटकती है
जैसे कहती हो—
“तू इस घर की नहीं है पूरी तरह।”
स्कूल बैग के भीतर
किसी अर्जुन का नाम
जबरन काटकर
उसने अपना लिखा है—
पर हर परीक्षा में
लगता है जैसे
पहले की स्याही अभी भी जीतती है।
उतरन
सिर्फ वस्त्र नहीं होती—
वह एक स्मृति होती है
किसी और की जीत की,
किसी की उदारता की छाया में
किसी और की हार भी।
वह बुज़ुर्ग माँ
जो अपने गहनों में से
छोटा-सा पायल
बहू को सौंपती है—
उसे ‘उतरन’ नहीं कहती,
उसे ‘आशीर्वाद’ कहती है।
लेकिन झुग्गी की वह स्त्री—
जो समाज की छाँव में
हर त्यौहार पर
किसी और की पुरानी साड़ी पहनती है,
वह अपने बच्चों को
अब भी नया सपना पहनाना चाहती है।
उतरन,
कभी करुणा है
तो कभी कटाक्ष,
कभी प्रेम
तो कभी पहना गया भेदभाव।
कब मिलेगा वह दिन
जब हर देह को
अपने लिए सिला गया वस्त्र मिलेगा,
हर नाम को
अपनी किताब में
पहली बार लिखा जाएगा,
और उतरन
सिर्फ बीते समय की
एक लोक-कथा बनकर रह जाएगी।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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