कशमकश
भीतर कुछ टूटा नहीं,
पर सब कुछ वैसा भी नहीं रहा—
जैसे कोई धागा,
कसता चला गया वर्षों से
और अब उँगलियाँ सुन्न हो चली हैं।
चेहरे पर मुस्कान है,
पर आँखों में मौसम बदलते रहते हैं।
कोई समझ नहीं पाता
कि ये चुप्पी
कितनी ऊँची आवाज़ है।
हर सुबह
एक निर्णय मांगती है—
चलना है या रुक जाना है,
बोलना है या बस सह लेना है।
कशमकश
कभी रिश्तों के बीच होती है,
कभी खुद से ही झगड़ना पड़ता है।
कभी जीतकर भी हार जैसा लगता है,
कभी हार में भी चैन मिल जाता है।
कोई राह नहीं दिखती—
पर चलना जरूरी है,
क्योंकि ठहरना
और भी बड़ा बोझ बन जाता है।
कशमकश,
एक थके हुए मन का आईना है—
जो मुस्कुराने की कोशिश में
अपनी ही आँखों से टकरा जाता है।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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