दायित्व-बोध
मैं केवल पाठ नहीं पढ़ाता,
शब्दों में संस्कार गढ़ता हूँ—
दीवारों के भीतर उगते स्वप्न
मेरे ही अंश हैं,
जिन्हें मैं हर दिन
संवेदनाओं से सींचता हूँ।
चॉक की धूल
मेरे वस्त्रों पर नहीं,
विचारों की रेखाओं में सजी होती है—
हर रेखा,
किसी संभावित भविष्य का मानचित्र बन जाती है।
घंटी की हर टंकार
मेरे दायित्व का उद्घोष है—
हर कालांश,
केवल पठन नहीं,
चरित्र निर्माण की एक प्रक्रिया है।
जब मैं डाँटता हूँ,
तो वह क्रोध नहीं,
एक दृष्टा की पीड़ा होती है
जो चाहता है कि
उसका शिष्य अंधकार से बचे।
और मेरी मुस्कान—
कोमल नहीं,
एक आश्वासन है
कि संसार में अभी भी
प्रेरणा जीवित है।
मैं जानता हूँ—
मेरे श्रम से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं
वे आँखें,
जो मेरी ओर टिकी होती हैं
किसी विश्वास की तरह।
शिक्षक होना
न केवल एक उत्तरदायित्व है,
बल्कि वह साधना है
जो स्वयं को तिल-तिल तपाकर
दूसरों में उजास भरती है।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY