योग्यता का वनवास
वो आता है वक्त पर,
काम समय से पहले पूरा करता है,
गलती नहीं करता,
पर तारीफ़ भी नहीं माँगता।
उसे आते हैं हल—
लेकिन वो “हल्ला” नहीं करता।
उसे आता है नेतृत्व—
पर वो “नेटवर्किंग” नहीं जानता।
और इसलिए—
जब लिस्ट बनती है पदोन्नति की,
तो उसका नाम
किसी “समीक्षा के अगले चरण” में डाल दिया जाता है।
कभी कहा जाता है—
“बहुत अच्छा काम करता है,
पर थोड़ा ‘लचीला’ नहीं है।”
कभी—
“टीम में घुलता नहीं,
इतना शांत क्यों रहता है?”
असल में—
वो "हाँ जी" नहीं करता।
जिसे आता है चमचागीरी,
वो ऊँची कुर्सी तक पहुँचता है,
और जो योग्यता से लबालब है—
वो टेबल के कोने पर बैठा रहता है,
फ़ाइलों के पीछे
अपना सम्मान ढूँढ़ता हुआ।
वो हर साल सुनता है—
“इस बार नहीं, अगली बार पक्का।”
पर वो जानता है—
ये कोई त्रेता नहीं,
जहाँ अगली बार अयोध्या मिलेगी।
यह कलियुग है—
यहाँ योग्यता को
बस वनवास ही मिलता है।
पर…
वनवास ही वो आग है
जिसमें तपकर राम बनते हैं।
और यहीं कहीं,
किसी अंधेरे कोने में
योग्यता भी अपना तेज सँजोती है।
फिर एक दिन,
वो लौटती है—
न नाराज़, न हताश,
बस सिद्ध और संकल्पित।
और तब उसका लौटना
सिर्फ़ वापसी नहीं होता,
बल्कि
एक पूरी व्यवस्था की पुनर्रचना होता है—
जहाँ काबिलियत को
फिर से उसका सिंहासन मिलता है।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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