शबरी की प्रतीक्षा
यह कोई साधारण प्रतीक्षा न थी—
न क्षणों की गिनती,
न पथ की ओर आँख टिकाए कोई अधीरता।
यह प्रतीक्षा थी
जैसे कोई नदी
स्वयं समुद्र हो जाने की यात्रा में हो।
शबरी बैठी थी—
एक निर्जन वन में नहीं,
बल्कि आत्मा के उस अंतर्यात्रिक वन में,
जहाँ हर पत्ता
एक श्लोक की भाँति गिरता था।
कंद चखना,
पेड़ों से संवाद करना,
मिट्टी की गंध में जीवन खोज लेना—
ये सब क्रियाएँ नहीं थीं,
ये तो उसकी साधना के मंत्र थे।
राम उसका लक्ष्य नहीं थे,
वे तो उसके भीतर के
प्रेम, प्रतीक्षा और परिपक्वता का प्रतिबिंब मात्र थे।
वह जानती थी—
सच्चा प्रेम आग्रह नहीं करता,
सिर्फ उपस्थित रहता है।
और उस उपस्थिति में
शबरी धीरे-धीरे
स्वयं को घिसती रही,
जैसे एक शिला जल में घुलती हो—
अहं टूटता गया,
इच्छाएँ मुरझाती रहीं,
और बचा सिर्फ एक मौन...
जो राम से भी गहरा था।
जब राम आए—
तो चमत्कार नहीं हुआ,
वह दृश्य केवल दृश्य नहीं था,
वह एक संपूर्ण जीवन की पुष्टि थी—
कि प्रतीक्षा, यदि निर्विचल हो,
तो वह स्वयं ईश्वर का रूप बन जाती है।
राम आए नहीं थे,
वे घटे थे—
जैसे प्रार्थना की अंतिम चुप्पी में उतरता हो कोई उत्तर।
न चरणों की ध्वनि हुई,
न वनों में शंखनाद,
फिर भी हर वृक्ष, हर पत्ता,
उस एक क्षण में अरण्य नहीं,
आत्मा बन गया था।
वे किसी दिशा से नहीं आए,
वे तो उस प्रतीक्षा के भीतर से प्रकट हुए—
जहाँ प्रेम आग्रहहीन था,
समर्पण निर्वचन,
और मौन स्वयं एक संवाद।
शबरी ने राम को देखा नहीं,
उसने उन्हें पुकारा नहीं,
वह जानती थी—
पहचानना, ईश्वर को सीमित कर देना है।
उसने उन्हें अनुभव किया—
जैसे सूर्य को अनुभव करती है अंधकार की पीठ।
यह मिलन दृश्य नहीं था,
यह साक्षात्कार था—
प्रश्नों से रहित,
आवश्यकताओं से परे,
पूर्णता की निर्विकार आभा में डूबा।
इसलिए,
जब राम मिले—
वह मिलन नहीं था,
वह प्रतीक्षा का
स्वयं में लौट आना था।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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