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सातवाँ वचन

 

सातवाँ वचन

सात फेरों में
जब तुमने थामा था मेरा हाथ,
हर वचन पर ठहरी थी
जीवन की नई परिभाषा।

पहला — साथ चलने का था,
दूसरा — विश्वास निभाने का,
तीसरा — सुख-दुख में साथ देने का,
चौथा — परिवार का आदर करने का,
पाँचवाँ — स्नेह और समर्पण का,
छठा — धर्म और कर्तव्य का,
पर...
सातवाँ वचन?
वो न तो पंडित ने बोला,
न किसी ग्रंथ में लिखा गया।

वो था —
"मैं तुम्हारे खामोश आँसुओं को पढ़ सकूँ,
तुम मेरे अनकहे शब्दों को समझ सको।"

वो वचन
किसी अग्नि के साक्षी में नहीं दिया गया,
वो तो आँखों की भाषा में
मन के स्पर्श से बँधा था।

आज,
जब शब्द चुप हैं
और जीवन की चहल-पहल में
हम अक्सर खो जाते हैं—
मुझे लगता है,
अगर हमने केवल
सातवाँ वचन ही निभाया होता,
तो बाकी सब
अपने आप निभ जाते।

©®अमरेश सिंह भदौरिया


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