Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सरकारी पेंशन

 

सरकारी पेंशन

गाँव का नाम था खरगपुर। कच्ची गलियाँ, नालियों से रिसती बदबूदार पानी की धार, और गलियों के नुक्कड़ पर मिट्टी के चबूतरे पर जमती चौपाल – जहाँ सुबह की चाय से लेकर शाम की राजनीति तक हर बात का नमक-मिर्च के साथ ‘विश्लेषण’ होता। वहाँ किसी की सफलता से ज़्यादा किसी की असफलता पर लोग ज्यादा खुश होते थे।

रघुनाथ सिंह, गाँव के पुराने पट्टीदारों में से एक, अब बूढ़े हो चले थे। बाल सफेद हो चुके थे, पीठ थोड़ी झुक गई थी, पर आँखों की तेज़ी अब भी किसी भी ‘खेल’ को ताड़ने में सक्षम थी। उनके तीन बेटे थे – विजय, अजय और विजेंद्र।

बड़ा बेटा विजय, गाँव से दूर एक इंटर कॉलेज में लिपिक की नौकरी करता था – कम वेतन, ज़्यादा ज़िम्मेदारी। रोज़ सुबह साढ़े सात बजे खड़खड़ करती नीली साइकिल पर निकल पड़ता – झोले में एक रजिस्टर, कलम, दोपहर का रूखा-सूखा टिफिन और एक पुरानी छतरी।

कपड़ों में झलकता था उसका सलीका – धो-सूखाकर पहना गया सफेद कुर्ता, हल्के काले चप्पल और माथे पर हमेशा चिंता की महीन रेखा। मगर दिल में ईमानदारी का ऐसा गहना था, जिसे न तो घूस छू सकी, न ही दुनियावी चालाकी।

उसकी पत्नी शारदा बहुत साधारण थी – सिंदूर हल्का, पल्लू कसा हुआ, और चेहरा ऐसा जैसे ज़िंदगी ने बहुत कुछ थमा दिया हो उम्र से पहले। दोनों बच्चे – राजू और मुन्ना, कभी आँगन में लोट-पोट होते तो कभी खपरैल के नीचे बैठे दादी की गोद में झाँकते।

संयुक्त परिवार अब नाम भर का रह गया था। बड़े बेटे की तनख़्वाह से जैसे-तैसे घर का चूल्हा जलता था, लेकिन हर चेहरे के पीछे दबी ज़रूरतें और अनकही अपेक्षाएँ पल रही थीं। कोई कुछ कहता नहीं था, पर सबको अपने हिस्से का सुख चाहिए था। बातचीत में अपनापन था, पर भीतर एक नर्म खिंचाव लगातार महसूस होता रहता।

रात के खाने में जब सब एक साथ बैठते, तब बातों के बीच हल्के कटाक्ष भी घुल जाते—

“विजय भइया की तनख्वाह तो मिल जाती है, हमरी पढ़ाई के किताब कौन दिलाएगा?”
“बहुरिया को सिलाई मशीन दिला दो बाबूजी, कुछ हाथ बँट जाएगा।”

रघुनाथ कुछ नहीं बोलते, बस खाँसते हुए चारपाई पर पीठ टिका लेते।

गाँव की बोली, खेत की मिट्टी, और घर के अंदरूनी तनाव – सब एक-दूसरे में उलझे हुए थे। और इस गुत्थी को सुलझाने वाला वही एक था – विजय। पर नियति को कुछ और मंज़ूर था...

एक दिन बरामदे में बैठकर शारदा अपने दोनों बच्चों को रोटी के टुकड़े में गुड़ लपेटकर खिला रही थी कि बाहर से गुल्लू दौड़ता हुआ आया — “बड़का भइया स्कूल जात समय गिर गइले, का जाने बड़ी टक्कर हो गई है... ट्रैक्टर से!”

शारदा के हाथ से थाली छूट गई। रघुनाथ तुरंत उठा नहीं, पहले डंडी के सहारे खड़ा हुआ, फिर लड़खड़ाते कदमों से बाहर की ओर भागा। अजय और विजेंद्र पीछे-पीछे।

सरकारी अस्पताल की खाट पर विजय की लाश थी – सफेद कुर्ता खून से सना, आँखें अधखुली, और माथे पर गहरी चोट। डॉक्टर ने सिर्फ एक वाक्य में सब कह दिया –
“सिर में गहरी चोट आई थी, लाते-लाते दम तोड़ दिया।”

शारदा के पैरों में जैसे जान ही न रही। लड़खड़ाकर वो चौखट से लगकर बैठ गई। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं, होंठ सूखे हुए... और बस एक टूटी सी आवाज़ निकली –
“अब का कहूँ... जो था ओही चला गया... अब ई चौखट सूनी, ई देहरी वीरान...'"

गाँव में एक दिन का मातम तो होता है, फिर वही गलियाँ, वही ताने...

“बड़े अफसर बने फिरत रहे... ट्रैक्टर से भी ना बच सके।”
“अब देखिए बहू को नौकरी मिलती है कि नाहीं...”
“पेंशन तो मिलेगी ही, सरकार मरने पर कुछ ना कुछ देती है।”

घर में अब सिर्फ आँसू थे और खामोशी। विजय के जाने के बाद सबसे बड़ा संकट रोटी का हो गया। सरकारी नौकरी की आस में दो भाई पढ़ रहे थे, खेत तो कब से घाटा ही दे रहा था।

रघुनाथ का चेहरा अब और भी झुक गया था – सुबह-सुबह चारपाई पर बैठा खेतों की ओर देखता, जैसे धरती से पूछ रहा हो, “अब का तू ही सहारा है?”

शारदा अब विधवा थी – बिना श्रृंगार, सफेद साड़ी, और आँखों में बसी एक स्थायी शून्यता। लेकिन बच्चों की ओर देखती तो आँचल कस लेती, जैसे अब वही उसके जीने की वजह हों।

सरकारी पेंशन के लिए दौड़-धूप शुरू हुई। कॉलेज का प्रधानाचार्य आया, सहानुभूति जताई, और फाइलें थमा दीं –

“कागज़ पूरा करवाना होगा, फिर लखनऊ से मंज़ूरी आएगी। समय लगेगा।”

हर हफ्ते तहसील, ब्लॉक, बैंक और पोस्ट ऑफिस के चक्कर – और हर जगह एक ही बात –

“थोड़ा चाय-पानी का खर्चा दीजिए... काम जल्दी होगा।”

रघुनाथ ने एक बीघा खेत गिरवी रख दिया – सिर्फ इस उम्मीद में कि शायद शारदा को अनुकंपा नियुक्ति मिल जाए, और बच्चों का भविष्य कुछ संवर जाए।

उधर खेती जैसे दम तोड़ रही थी – कभी पानी की कमी, कभी खाद का भाव, और कभी मज़दूरों की मार। गाँव के लोग अब भी कटाक्ष करते—

“अब खेती से पेट नहीं भरता, पेंशन से कमा लेंगे सब।”

लेकिन रघुनाथ जानता था, सरकारी पेंशन कोई स्थायी सहारा नहीं। विजय का जाना सिर्फ एक सदस्य का नहीं, बल्कि पूरे परिवार की रीढ़ का टूट जाना था।

एक दिन डाकिया आया – मनीऑर्डर लेकर। तीन हज़ार रुपये की पहली पेंशन। रघुनाथ ने पैसे हाथ में लिए और बहुत देर तक उन्हें निहारता रहा –
“ई का... ई का मुआवजा है बेटा के जीवन के बदले?”

शारदा ने चुपचाप उस पैसे में से दो सौ रुपये निकालकर विजय की तस्वीर के नीचे अगरबत्ती रखी और कहा –

“अब इसे संभालना है... अपने बच्चों के लिए, अपने हिस्से की धरती के लिए।”

बरस बीतते गए।
विजय की मौत के बाद घर में चूल्हा जला, तो सिर्फ गाँव की संवेदना और खेत की मिट्टी के सहारे।

खरगपुर की गलियाँ वैसी ही रहीं—धूल से भरी, मगर लोगों की ज़ुबानों पर चटपटे ताने रोज़ नये स्वाद में परोसे जाते।

“खेत बचाएंगे, पढ़ाई कराएंगे, और बहू को स्कूल में नौकरी दिलाएंगे?”
“पेंशन का पैसा है, आराम से कटेगा।”

पर किसी को क्या पता था कि वो पेंशन कभी समय से आती ही नहीं। कभी बैंक की लाइनें, कभी दस्तावेज़ों की कमी, तो कभी बाबुओं की बेरुख़ी...।

शारदा, अब कम बोलती थी, ज़्यादा सहती थी। कभी मुन्ना की किताबों के पन्ने चुपके से पढ़ती, तो कभी खटिया पर बैठी हुई चुपचाप आसमान ताकती।

खेतों की हालत भी शहर के रिश्तों जैसी हो चली थी – बेगानी, रूखी और धोखेबाज़।
कभी बारिश चार महीने तक नहीं होती, तो कभी एक दिन में ही सब बहा ले जाती।
सिंचाई के लिए डीज़ल चाहिए, डीज़ल के लिए पैसे। खाद के लिए कूपन, कूपन के लिए सिफारिश।
पट्टीदारों की ज़मीनें अब मशीनों से कटतीं, लेकिन रघुनाथ की ज़मीन पर बैलों की जोड़ी भी बूढ़ी हो चली थी।

सूर्य अस्ताचल की ओर झुक रहा था, और गांव की साँझ गहरी होती जा रही थी। खेतों से लौटते हुए रघुनाथ के दुर्बल कंधों पर दिन भर की थकान साफ़ झलक रही थी। तभी गांव के रईस, छैल बिहारी, अपनी चमचमाती गाड़ी से उतरे और अपनी चिकनी बातों से रघुनाथ के कानों में रस घोलने लगे—

“अबे रघुनाथ,” उन्होंने कहा, उनकी आवाज़ में शहर की कृत्रिम मिठास घुली हुई थी, “छोड़ो ये मिट्टी का झंझट। बेंच दो ये खेत-खलिहान। शहर में एक अच्छा-सा कमरा ले लो। तुम्हारी बहू भी कब तक इस गांव में घुट-घुट कर जिएगी? उसे भी तो आराम चाहिए।”

रघुनाथ, जिनकी साँसों में बरसों की मिट्टी की गंध बसी थी, धीरे से खाँसे। उनकी झुर्रियों भरी आँखों में एक गहरी वेदना तैर गई। उनकी कमजोर उंगलियाँ अपनी पुरानी लाठी को और कसकर पकड़ लिया। बड़ी मुश्किल से, लड़खड़ाती हुई आवाज़ में उन्होंने कहा—

“माटी नहीं छूटती, बेटा… यह माटी ही तो हमारी माँ है। इसे छोड़ दिया तो हमारी जड़ें सूख जाएंगी। यही रही तो… तो वंश बचेगा।”

उनके स्वर में एक ऐसी करुणा थी, एक ऐसा अटूट बंधन था अपनी धरती से, जिसे सुनकर छैल बिहारी भी पल भर के लिए निरुत्तर हो गए। उस बूढ़े किसान की आँखों में अपनी मिट्टी के लिए जो अथाह प्रेम और चिंता झलक रही थी, वह किसी शहर के आलीशान कमरे में कभी नहीं मिल सकती थी। उस साँझ, खेत की मेड़ पर खड़े रघुनाथ की आवाज़ में सिर्फ मिट्टी नहीं बोल रही थी, बल्कि सदियों से चली आ रही एक किसान की आत्मा बोल रही थी।

पट्टीदारों की आँखों में अब वह कुदृष्टि, ईर्ष्या की तपिश में तपते अंगारों-सी धधकने लगी थी। उनके बेटे अब शहर की चकाचौंध में खो चुके थे—ठेकेदारी की चमक उनके चेहरों पर नकली रोशनी की तरह झिलमिलाती थी, और महंगी गाड़ियों की रफ्तार में गाँव की मिट्टी की खुशबू कब पीछे छूट गई, उन्हें याद भी न रहा।

उधर, रघुनाथ और शारदा उस छोटे से खेत को जैसे जीवन की अंतिम लौ मान बैठे थे। वे बूढ़े शरीर अब समय के सामने झुक चुके थे—कमरें जैसे वर्षों की मेहनत से लता बन गई थीं, हाथों की त्वचा पर झुर्रियाँ नहीं, बल्कि खेत की लकीरें उभर आई थीं। फिर भी उस मिट्टी से उनका रिश्ता वैसा ही अटूट था, जैसे किसी दीपक की बाती से उसकी लौ।

हर उगती फसल उनके लिए सिर्फ अन्न नहीं थी, बल्कि बुढ़ापे के अंधेरे में एक उजास थी। हर ढलते सूरज के साथ उन्हें अपने पसीने से सींची ज़मीन की गोद में, दिन भर की तपस्या का फल मिलता था।

पट्टीदारों के बेटों की चमकती ज़िंदगी को देखकर कभी-कभार उनके मन में भी एक सूनी साँझ-सी कसक उठती थी, पर वह ईर्ष्या नहीं थी—बल्कि जड़ों की ओर लौटती एक गुप्त पुकार थी। वे जानते थे कि शहरों की तेज़ रफ्तार उनके मन के सुकून को रौंद देगी। उन्हें शांति उस मिट्टी की सोंधी गंध में मिलती थी, जहाँ जीवन सिर्फ चलता नहीं, साँस लेता है।

राजू बड़ा हो गया था। अब वह अपने पिता की पुरानी तस्वीर देखकर नहीं रोता, बल्कि उसे ताकता रहता—जैसे हर रोज़ उससे कुछ सीख रहा हो।

शारदा के हाथ की सिलाई अब गाँव के लड़कों की स्कूल ड्रेस, और लड़कियों की सलवार सूट तक पहुँच गई थी। दिन भर मशीन की चर्र-चर्र में उसका अकेलापन दब जाता।

एक दिन वो कागज़ आया—"अनुकंपा नियुक्ति की फाइल स्वीकृत हुई है।"
राजू, अब 21 साल का, इंटर पास, कॉलेज छोड़कर कंप्यूटर क्लास कर रहा था।
16 साल बाद, उसके लिए वो नौकरी आई थी जो उसके पिता की शहादत का मुआवजा थी।

वो गाँव के उसी इंटर कॉलेज में क्लर्क बन गया जहाँ कभी विजय साइकिल से जाता था।
अब वही कुर्ता, वही झोला और वही साइकिल, लेकिन आँखों में कुछ और था—
एक संकल्प कि इस मिट्टी की कीमत समझे बिना कोई ताना अब उस घर तक नहीं पहुँचेगा।

रघुनाथ अब नहीं रहे। लेकिन उनके अंतिम दिनों में राजू ने उन्हें वो नियुक्ति पत्र दिखाया था।
उनकी आँखों से आँसू नहीं निकले थे, बस होंठों ने धीरे से कहा था—
“अब इस घर का सूरज फिर उगने वाला है।”

शारदा की आँखों में एक चमक थी – ये उसकी सोलह साल की तपस्या का फल था।

खरगपुर की धूलभरी गलियाँ अब भी वैसी ही थीं, पर अब उनमें एक नई बात चलती थी—

"विजय का बेटा सरकारी नौकरी पा गया… माँ ने हार नहीं मानी… खेत भी बचा लिए, घर भी…"

राजू, अब रोज़ सुबह उसी कुर्सी पर बैठता, जिस पर उसके पिता बैठते थे। लोगों के दस्तावेज़ ठीक करता, बिना घूस लिए काम करता।
कभी-कभी खिड़की से बाहर झाँकता, तो कॉलेज के मैदान में अपने बचपन की परछाइयाँ दौड़ती दिखतीं। और मन ही मन पिता को याद करता—

"बाबूजी, आप जैसे ही बनने चला हूँ… थोड़ी देर से सही, पर आपकी राह पर हूँ…"

शारदा अब साड़ी का पल्लू हल्के रंगों में रखती थी — न जाने कब से उसने गाढ़े रंगों से नाता तोड़ लिया था, जैसे — जीवन की थकी हुई हथेलियों ने अब धूप से समझौता कर लिया हो। सिलाई की मशीन अब भी चलती थी, लेकिन वह हर कपड़े के साथ एक सपना भी लड़कियों को सौंप देती। वह मुस्कुराकर कहती—

“बेटियों, ये धागे बस कपड़े नहीं जोड़ते, तुम्हारे सपनों को भी सीते हैं। पढ़ो, एक दिन यही हौसला तुम्हारे लिए रोज़ी से ज़्यादा, पहचान बनाएगा।”

खेत, जो कभी घाटे का सौदा लगे थे, अब फिर से हरे हो चले थे।
राजू ने गाँव में दो किसानों को साथ जोड़कर सहकारी खेती शुरू की, आधुनिक बीज और सिंचाई प्रणाली के साथ—
लोगों को समझ आया कि “खेती अगर मेहनत से हो, तो पूँजी से बड़ी ताक़त है।”

गाँव वालों की सोच बदलने लगी थी।
जहाँ पहले ताना मिलता था—

"अबे खेती से कुछ नहीं होता…"
अब लोग कहते थे—
"राजू की तरह बेटा हो तो खेत भी जमींदारी से कम नहीं।"

और यही था उस संघर्ष का अंतिम सार—
कि पेंशन से जीवन नहीं चलता, पर धैर्य और श्रम से इतिहास लिखा जा सकता है।

समाज को एक अनचाहा लेकिन स्वीकार्य संदेश मिल गया—

"गरीबी कोई अभिशाप नहीं, और सरकारी नौकरी कोई अंतिम मुक्ति नहीं।
सच्चा सहारा है – श्रम, आत्मसम्मान, और उस खेत की माटी, जिसे सब छोड़ देते हैं,
पर जो हर बार अपना पेट चीरकर अन्न उगाती है…"

©®अमरेश सिंह भदौरिया

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