शोध-पत्र
प्रेमचंद: साहित्य के यथार्थ के प्रवक्ता और समकालीन चेतना के वाहक
शोधकर्ता: अमरेश सिंह भदौरिया (प्रवक्ता हिन्दी)
संस्था: त्रिवेणी काशी इंटर कॉलेज, बिहार, उन्नाव
वर्ष: 2025
1. भूमिका
जब हम यह स्वीकार करते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है, तब यह विचार अपने आप में एक प्रश्न भी बन जाता है—कि वह दर्पण कितना स्वच्छ, कितना संवेदनशील और कितना निर्भीक है? इसका उत्तर लेखक की दृष्टि, अनुभव और उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता में निहित होता है। हिन्दी साहित्य के विशाल परिदृश्य में यदि कोई रचनाकार इस कसौटी पर पूर्णतः खरा उतरता है, तो वह हैं – मुंशी प्रेमचंद।
प्रेमचंद केवल साहित्यकार नहीं, समाज के जाज्वल्यमान यथार्थ के सजग दृष्टा और शब्दों के माध्यम से जनचेतना के प्रवक्ता थे। उनके लिए लेखन एक साधना थी—ऐसी साधना जिसमें भाषा सामाजिक अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर बनती है। उन्होंने साहित्य को दरबारों की चाटुकारिता से निकालकर खेत-खलिहानों, गलियों और झोपड़ियों तक पहुँचाया।
उनकी रचनाओं में गरीब किसान की जर्जर पुकार, स्त्री की मूक वेदना, दलित वर्ग की उपेक्षा और मध्यवर्गीय नैतिक द्वंद्व—इन सबका यथार्थ चित्रण निहित है। प्रेमचंद का साहित्य केवल पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि उसे जीने, महसूस करने और उस पर चिंतन करने का आग्रह करता है।
आज जब समाज उपभोक्तावाद, नैतिक विचलन और संवेदनहीनता की दिशा में बढ़ रहा है, प्रेमचंद की रचनाएँ हमें आत्मनिरीक्षण की प्रेरणा देती हैं। उनका साहित्य न केवल अतीत का दर्पण है, बल्कि वर्तमान की आलोचना और भविष्य की दिशा का संकेत भी।
2. प्रेमचंद का जीवन और वैचारिक आधार
मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के निकट लमही नामक ग्राम में एक साधारण कायस्थ परिवार में हुआ। उनका मूल नाम धनपत राय था, जो बाद में 'प्रेमचंद' के नाम से साहित्य-जगत में अमर हुए। बाल्यावस्था ही उनके लिए संघर्षों की पाठशाला रही—माता का साया चार वर्ष की आयु में छिन गया और पंद्रह वर्ष की आयु में पिता का भी निधन हो गया। इन व्यक्तिगत आघातों ने उन्हें जीवन की कठोर सच्चाइयों से शीघ्र परिचित कराया।
आर्थिक अभाव के बीच शिक्षा प्राप्त करना, जीविकोपार्जन हेतु अध्यापन कार्य करना और साथ ही साथ लेखन को साधना के रूप में निभाना—प्रेमचंद के जीवन की यह त्रयी उनके साहित्यिक व्यक्तित्व की आधारशिला बनी। वे आरंभ में उर्दू में 'नवाब राय' नाम से लेखन करते थे और बाद में हिन्दी को अपनी सशक्त अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
उनका साहित्य महज़ कल्पना की उड़ान नहीं, यथार्थ की ठोस ज़मीन पर खड़ा है। उन्होंने समाज के उन वर्गों को स्वर दिया जो सदियों से उपेक्षित, शोषित और पीड़ित रहे। प्रेमचंद के लिए साहित्य केवल सौंदर्य-बोध का विषय नहीं था, बल्कि वह सामाजिक विषमता के विरुद्ध चेतना का शस्त्र था। उन्होंने साहित्य को जन-संवाद का माध्यम बनाया—ऐसा संवाद जिसमें किसान की कराह, मजदूर की थकान, स्त्री की चुप्पी और दलित की पीड़ा स्पष्ट रूप से सुनी जा सकती है।
प्रेमचंद का वैचारिक आधार गाँधीवादी आदर्शों, मानवीय मूल्यों और भारतीय संस्कृति की गहराई से जुड़ा हुआ था। वे आर्थिक न्याय, सामाजिक समानता और नैतिक दृढ़ता के पक्षधर थे। उन्होंने न तो सामाजिक बुराइयों से आँखें मूंदी, न ही रूढ़ियों को महिमामंडित किया।
उनकी विचारधारा किसी एक विचारधारा में सीमित नहीं थी—वह मानवता की व्यापक भूमि पर खड़ी थी, जहाँ हर वर्ग, हर मनुष्य के लिए जगह थी। उनका साहित्य उसी बहुस्तरीय दृष्टिकोण का परिणाम है, जो उन्हें न केवल हिन्दी बल्कि विश्व साहित्य में भी एक विशिष्ट स्थान प्रदान करता है।
3. साहित्यिक विशेषताएँ और यथार्थ की स्थापना
3.1 सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन
प्रेमचंद का साहित्य भारतीय समाज की तहों में छिपे उस कटु यथार्थ का उद्घाटन करता है, जो लंबे समय तक उपेक्षा और मौन का शिकार रहा। उन्होंने अपने लेखन में समाज के उन पहलुओं को उजागर किया जो सामान्यतः चर्चा से परे रखे जाते थे—जैसे सामंतवाद की शोषक प्रवृत्तियाँ, पूँजीवाद की अमानवीयता, जातिगत भेदभाव और स्त्रियों की दयनीय स्थिति।
‘गोदान’ प्रेमचंद का महाकाव्यात्मक उपन्यास है, जिसमें नायक ‘होरी’ के माध्यम से एक किसान की ज़िंदगी की त्रासदी को प्रस्तुत किया गया है। यह केवल एक व्यक्ति की कथा नहीं, बल्कि उस समूचे कृषक समाज की पीड़ा है जो आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था के बोझ तले कुचला जा रहा है। प्रेमचंद ने इसमें सामंतवाद, कर्ज़, जाति और पूंजी की जकड़न को इस कुशलता से चित्रित किया है कि पाठक केवल करुणा नहीं, व्यवस्था के प्रति आक्रोश भी अनुभव करता है।
‘निर्मला’ में दहेज-प्रथा की सामाजिक बुराई को केंद्र में रखकर स्त्री-जीवन की विडंबनाओं को चित्रित किया गया है। एक अल्पवयस्क कन्या का एक वृद्ध पुरुष से विवाह, संदेह की मानसिक यातना और उसके आत्ममूल्य के ह्रास का यथार्थ चित्रण आज भी उतना ही प्रासंगिक है। यह उपन्यास भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति पर एक गंभीर सामाजिक विमर्श प्रस्तुत करता है।
‘सेवासदन’ में प्रेमचंद ने स्त्री की अस्मिता, नैतिकता और सामाजिक भूमिका पर प्रश्न खड़े किए। यह रचना उस समय की सामाजिक दृष्टिकोण की आलोचना करती है, जहाँ स्त्री की स्वतंत्रता और गरिमा को पुरुष-प्रधान समाज द्वारा बाधित किया जाता है।
प्रेमचंद की विशेषता यह थी कि वे किसी समस्या को सतही ढंग से नहीं, बल्कि उसके मूल कारणों तक पहुँचकर चित्रित करते थे। वे न तो पात्रों को नायकत्व का आदर्श बनाते हैं और न ही खलनायकी की गहराइयों में धकेलते हैं—बल्कि उन्हें समाज की परिस्थिति का प्रतिनिधि बनाकर प्रस्तुत करते हैं।
उनका यथार्थ केवल स्थिति का चित्रण नहीं, बल्कि सामाजिक विवेक का जागरण है। वे पाठक को संवेदना के धरातल से उठाकर चिंतन की भूमि पर लाते हैं। यही कारण है कि उनका साहित्य केवल रचनात्मक नहीं, परिवर्तनकारी भी है।
3.2 ग्रामीण जीवन का चित्रण
हिन्दी साहित्य में जब तक मुंशी प्रेमचंद का प्रवेश नहीं हुआ था, गाँव केवल पृष्ठभूमि थे—कथानक की रंगभूमि, पात्रों की जन्मस्थली या घटनाओं की पृष्ठछवि मात्र। किंतु प्रेमचंद ने गाँव को कथा का केंद्र बनाया, वहाँ के जन-जीवन को उसकी समस्त जटिलताओं, संघर्षों और करुणाओं के साथ प्रस्तुत किया।
उनके लिए गाँव कोई आदर्शलोक नहीं था, न ही केवल निरीह पीड़ितों का कोलाज; वह एक जीवंत समाज था, जहाँ जीवन अपनी समस्त विपन्नता और गरिमा के साथ बहता है। उन्होंने किसान को केवल खेत जोतता हुआ व्यक्ति नहीं दिखाया, बल्कि उसकी आत्मा, उसके स्वप्न, उसकी व्यथा और उसके मौन प्रतिरोध को शब्द दिए।
‘गोदान’ में होरी केवल एक पात्र नहीं, वह भारतीय किसान का प्रतीक है—जो जन्म से मृत्यु तक एक अदृश्य गोदान के संकल्प में बंधा रहता है। उसके पास न संपत्ति है, न अधिकार, न विकल्प—फिर भी वह जीवित रहता है, इस आशा में कि शायद अगला मौसम उसके पक्ष में हो। धनिया, उसकी पत्नी, उस ग्रामीण स्त्री का चेहरा है जो विषमताओं में भी सलीके से जीना जानती है, अपने पति की कमजोरी में भी उसका संबल बनती है।
प्रेमचंद ने ग्रामीण जीवन के विविध पात्रों—साहूकार की शोषक वृत्ति, पंडितों की रूढ़िवादिता, दलितों की उपेक्षित पीड़ा, मजदूरों की बेबसी और स्त्रियों की आंतरिक शक्ति—सभी को अत्यंत सूक्ष्मता और संवेदना से चित्रित किया है।
उनके साहित्य में गाँव केवल भूगोल नहीं, चिंतन और चेतना का स्थल है। वहाँ जीवन की धड़कनें हैं, जो कभी करुण हैं, कभी क्रोधित, कभी विवश और कभी विद्रोही। प्रेमचंद ने नायकों को कोठियों से निकालकर खेतों में, झोपड़ियों में और मेले-ठेलों में पहुँचा दिया, जहाँ पाठक पहली बार भारतीय जीवन को उसके यथार्थ रंगों में देख पाता है।
प्रेमचंद का यह योगदान हिन्दी साहित्य को केवल समृद्ध ही नहीं करता, बल्कि उसे भारतीय समाज के हृदय से जोड़ता है। उनका ग्रामीण चित्रण एक ऐसा दर्पण है, जिसमें हमारी सभ्यता की जड़ें झलकती हैं—धूल से सनी, पर गहराई से भरी हुई।
3.3 नारी चेतना और स्त्री विमर्श
प्रेमचंद उस युग में स्त्री की पीड़ा, चेतना और स्वाभिमान की आवाज़ बने, जब समाज स्त्री को मात्र त्याग, सहनशीलता और मौन की मूर्ति के रूप में देखता था। उनके साहित्य में स्त्रियाँ केवल गृहस्थी की परिधि में सिमटी हुई परछाइयाँ नहीं हैं, बल्कि वे विचार, विवेक और विद्रोह की धाराओं को आकार देती जाग्रत सत्ता हैं।
‘निर्मला’ की नायिका एक ऐसी किशोरी है जिसे समाज की विषम परंपराएँ एक वृद्ध पुरुष से बाँध देती हैं। उसका संघर्ष केवल दांपत्य जीवन की विडंबना नहीं, बल्कि उस आत्मा की करुण पुकार है जो अपने अधिकार और सम्मान की तलाश में घुटती है। निर्मला का मौन उसके भीतर के तूफान का संकेत है, जो धीरे-धीरे स्त्री विमर्श की पहली प्रतिध्वनि बनकर उभरता है।
धनिया, गोदान की स्त्री पात्र, ग्रामीण पृष्ठभूमि की सशक्त नायिका है। वह समाज और पति की सीमाओं के बीच जीती अवश्य है, परंतु जब अन्याय की बात आती है, तो वह बिना झिझक प्रश्न उठाती है। उसका स्वरूप प्रेमचंद की उस स्त्री दृष्टि को प्रकट करता है, जिसमें परंपरा के भीतर भी प्रतिरोध की गुंजाइश है।
सेवासदन की सुमित्रा एक ऐसी स्त्री है, जो सामाजिक नैतिकता के खोखले आवरण को तोड़कर, आत्मसम्मान के रास्ते पर चलने का साहस करती है। उसका जीवन समाज के उन स्तंभों को झकझोरता है, जो स्त्री को मात्र चरित्र और शील की परिभाषा में बाँधना चाहते हैं।
प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में सोना, जूही, पवित्रा जैसी स्त्रियों को न केवल संवेदना दी, बल्कि विचार की दृष्टि भी प्रदान की। उन्होंने यह सिद्ध किया कि स्त्री केवल भोग्या नहीं, विचार की वाहिका, संवेदना की स्रोत और संघर्ष की रचनात्मक शक्ति भी है।
प्रेमचंद का स्त्री चित्रण आज के स्त्री विमर्श का पूर्वगामी है। उन्होंने बिना नारेबाज़ी के, स्त्री के अधिकार, गरिमा और स्वत्व की बात की। उनकी स्त्रियाँ चुप होकर भी बोलती हैं, सहती हैं लेकिन मिटती नहीं, और अपने मौन में भी एक अदृश्य विद्रोह की घोषणा करती हैं।
3.4 भाषा की सरलता और संवाद की प्रभावशीलता
प्रेमचंद की सबसे बड़ी साहित्यिक उपलब्धियों में उनकी भाषा की सहजता और संप्रेषण की शक्ति का उल्लेख विशेष रूप से किया जाता है। उन्होंने हिन्दी कथा-साहित्य को न केवल विचार का आयाम प्रदान किया, बल्कि एक ऐसी भाषा दी जो जन-सामान्य की संवेदना से सीधी जुड़ती है।
उनकी भाषा न अलंकारों से बोझिल है, न ही शुद्धतावादी आग्रहों से बंधी हुई। खड़ी बोली हिन्दी को उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और उसमें तत्सम एवं तद्भव शब्दों का ऐसा संतुलित प्रयोग किया, जिससे भाषा न तो क्लिष्ट बनी, न ही स्तरहीन।
प्रेमचंद की भाषा का सौंदर्य उसकी प्रभावशील सादगी में है। उनकी शैली कथानक को कहने के लिए शब्दों की चकाचौंध का आश्रय नहीं लेती, बल्कि विचार और संवेदना की गहराई से स्वयं प्रकाशित होती है। उनका उद्देश्य पाठक का मन बहलाना नहीं, बल्कि उसके विचार को उद्दीप्त करना था—और यही उनके संवादों की आत्मा है।
उनके संवाद केवल पात्रों के बीच वार्तालाप नहीं हैं, बल्कि वे समाज के भीतर चल रहे वैचारिक संघर्षों के मुखर स्वर हैं। चाहे वह ‘गोदान’ में होरी और धनिया का संवाद हो या ‘कफन’ में घीसू और माधव की संवादात्मक विडंबना—हर संवाद जीवन की किसी गूढ़ पीड़ा, विडंबना या यथार्थ को उघाड़ता है।
प्रेमचंद ने अपनी भाषा को ‘शास्त्रीय’ नहीं, बल्कि मानवीय बनाया। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ आज भी उसी ताजगी और संप्रेषणीयता के साथ पाठकों के हृदय को छूती हैं।
उनकी भाषा में न तो दिखावटी क्रांति है, न छद्म भावुकता—बल्कि एक ऐसी गंभीर, सजग और विचारशील साहित्यिक दृष्टि है, जो हर पाठक को अपने भीतर झाँकने के लिए विवश करती है।
4. प्रमुख कृतियों की साहित्यिक समीक्षा
4.1 गोदान (1936)
‘गोदान’ प्रेमचंद की साहित्यिक चेतना का शिखर, उनके यथार्थवादी दृष्टिकोण की पराकाष्ठा और हिन्दी उपन्यास साहित्य की मील का पत्थर है। यह केवल एक किसान होरी की कथा नहीं है, बल्कि भारतीय ग्राम्य जीवन की उस सामूहिक पीड़ा का आख्यान है, जिसमें श्रम है, स्वप्न है, संघर्ष है और एक अदृश्य त्रासदी की अविरल बहती धारा है।
होरी का ‘गोदान’ केवल एक धार्मिक कर्तव्य नहीं, वह उस मूल्यबोध का प्रतीक है जो भारतीय किसान को पीढ़ी दर पीढ़ी बोझ की तरह ढोना पड़ता है। खेत, बैल, हल—इन सबसे कहीं अधिक वह सम्मान के लिए जीता है, और अंततः उसी के लिए मृत्यु को भी स्वीकार कर लेता है।
उपन्यास में धनिया का चरित्र ग्रामीण स्त्री चेतना की सशक्त प्रस्तुति है, जो विवशताओं के बीच भी अपने आत्मसम्मान को खोने नहीं देती। वह केवल होरी की सहधर्मिणी नहीं, उसकी नैतिक चेतना की प्रतिनिधि है।
‘गोदान’ की बहुस्तरीय संरचना—जिसमें होरी की कथा के साथ-साथ शहरी वर्ग के बुद्धिजीवियों, नौकरशाही, पूँजीपतियों और राजनैतिक परिवेश की समानांतर गाथाएँ चलती हैं—हिन्दी उपन्यास को एक समाजशास्त्रीय ग्रंथ की तरह विस्तृत करती हैं। यह प्रेमचंद की दृष्टि की व्यापकता को दर्शाती है कि उन्होंने ग्रामीण भारत को एक समग्र सांस्कृतिक संरचना के भीतर रखा।
शैली और भाषा के स्तर पर भी ‘गोदान’ प्रेमचंद की सर्वोच्च कृति है। कथोपकथन स्वाभाविक, वर्णन यथार्थपरक और भाषा अत्यंत सहज, लेकिन भाव से भरपूर है। यहाँ तक कि उपन्यास का अंत—होरी की मृत्यु—भी पाठक के मन में एक गूंज छोड़ जाता है, जो केवल दुख की नहीं, बल्कि एक पूरी सभ्यता की आत्मपीड़ा की अनुगूंज है।
‘गोदान’ को पढ़ना केवल साहित्य का रसास्वादन नहीं, भारतीय समाज के अंतःकरण में प्रवेश करना है। यह उपन्यास उस अनकहे इतिहास को शब्द देता है, जो इतिहास की पुस्तकों में नहीं, खेतों की मिट्टी में दबा हुआ है।
4.2 निर्मला (1926)
‘निर्मला’ प्रेमचंद की उन कालजयी कृतियों में से एक है, जिसने हिन्दी उपन्यास को स्त्री-विमर्श की गहराइयों से जोड़ा। यह उपन्यास दहेज जैसी सामाजिक कुरीति पर तीखा प्रहार है, लेकिन केवल एक समस्या को उठाना ही इसका उद्देश्य नहीं, बल्कि उसके पीछे छिपे पितृसत्तात्मक ढाँचे की निर्ममता को उद्घाटित करना इसका केंद्रीय उद्देश्य है।
निर्मला, इस उपन्यास की नायिका, एक कोमल हृदय, विवश स्त्री है, जो परिस्थितियों की कठोरता और समाज की रूढ़ मानसिकता की शिकार बन जाती है। उसका विवाह एक ऐसे व्यक्ति से कर दिया जाता है, जो न केवल आयु में अत्यधिक बड़ा है, बल्कि संदेह और अधिकार की आग में जलता हुआ एक मानसिक उत्पीड़क भी है।
प्रेमचंद ने निर्मला के माध्यम से दिखाया है कि कैसे स्त्री का जीवन विवाह के बाद उसका नहीं रहता, बल्कि वह एक ऐसे चौखटे में क़ैद हो जाती है जहाँ प्रेम, अधिकार, स्वाभिमान और स्वतंत्रता—सब कुछ धीरे-धीरे छीन लिया जाता है।
निर्मला की त्रासदी उसके भीतर के घुटन भरे मौन में छिपी है। वह न चीख सकती है, न विद्रोह कर सकती है—क्योंकि समाज ने उसे यही सिखाया है कि सहनशीलता ही स्त्री का गहना है। लेकिन इस मौन में प्रेमचंद ने एक गूंज छिपा दी है—एक करुण पुकार, एक अनकहा प्रतिरोध, जो पाठक को भीतर तक विचलित कर देता है।
‘निर्मला’ की भाषा उतनी ही सरल है जितना उसका कथ्य गंभीर। संवादों में मानसिक द्वंद्व, और वर्णन में सामाजिक विडंबना की सहज झलक मिलती है। प्रेमचंद ने नायिका के भीतर की टूटन, उसके अपमान, आशंका और खोए हुए सपनों को इतना सजीव बना दिया है कि पाठक स्वयं उस पीड़ा का सहभागी हो उठता है।
‘निर्मला’ न केवल अपने समय की सामाजिक विडंबनाओं का दस्तावेज़ है, बल्कि आज भी जब दहेज, विवाह में असमानता और स्त्री की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिह्न लगे हुए हैं, यह उपन्यास एक अमर चेतावनी की तरह हमारे सामने खड़ा है।
4.3 कफ़न
‘कफ़न’ प्रेमचंद की सबसे मार्मिक, सबसे विवादस्पद और सबसे झकझोर देने वाली कहानियों में से एक है। यह मात्र एक कथा नहीं, बल्कि गरीबी, शोषण और मानवीय संवेदना के पतन की गहरी पड़ताल है।
घीसू और माधव—दो पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व करने वाले ये पात्र किसी एक जाति या वर्ग के नहीं, बल्कि उस वंचित भारत के प्रतीक हैं, जो अपनी भूख और बेबसी के सामने नैतिकता, करुणा और मर्यादा तक को ताक पर रख देता है।
कहानी की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि यह पाठक को नैतिक द्वंद्व में डाल देती है—क्या घीसू और माधव वास्तव में अमानवीय हैं? या वे उस व्यवस्था के शिकार हैं, जिसने उन्हें इस कदर असंवेदनशील बना दिया है?
जब प्रसव पीड़ा से तड़पती बहू के मरने के बाद वे उसकी अर्थी के लिए माँगा गया कफ़न का पैसा शराब और पूड़ी-कचौड़ी में उड़ा देते हैं, तो यह केवल विकृति नहीं, बल्कि उस सिस्टम पर एक करारा तमाचा है जिसने इंसान को इतनी गहराई तक तोड़ दिया है कि वह मरते हुए को नहीं, मरे हुए के बहाने जिंदा रहने की राह खोजता है।
प्रेमचंद ने इस कहानी में करुणा की विडंबना को एक ऐसी ऊँचाई पर पहुँचाया है जहाँ संवेदना और व्यंग्य एक साथ चलने लगते हैं। कहानी का अंत पाठक को हँसाता नहीं, चुप करा देता है—एक असहाय मौन, जिसमें सैकड़ों सालों की भूख, ग़रीबी और असमानता की आवाज़ गूँजती है।
‘कफ़न’ की भाषा अत्यंत सरल, बोलचाल की, लेकिन उसकी विचार-गहनता अद्भुत है। संवादों में हास्य है, लेकिन वह ऐसा करुण हास्य है जो भीतर तक चुभता है।
यह कहानी प्रेमचंद की उस शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है जहाँ छोटे आकार में गहन सामाजिक दर्शन समाहित होता है। ‘कफ़न’ को पढ़ना स्वयं से सवाल करना है—कि जब पेट भूखा हो, तो क्या आत्मा जीवित रह सकती है?
5. प्रेमचंद की प्रासंगिकता: 21वीं सदी के परिप्रेक्ष्य में
5.1 कृषि संकट और किसान आत्महत्याएँ
आज जब हम 21वीं सदी के भारत में किसानों की दुर्दशा की ओर दृष्टिपात करते हैं, तो हमें गोदान का होरी बार-बार याद आता है—जैसे वह मात्र एक पात्र नहीं, बल्कि आज के हर संघर्षशील किसान की आध्यात्मिक छवि हो।
कर्ज़, महँगाई, बाजारवादी व्यवस्था, प्राकृतिक आपदाएँ, और सरकारी उपेक्षा—इन सबके बीच जब कोई किसान आत्महत्या करता है, तो वह केवल एक जीवन का अंत नहीं होता, बल्कि एक सभ्यता की असफलता का संकेत होता है।
प्रेमचंद ने जिस किसान की त्रासदी को 1936 में शब्द दिया था, वह आज भी हूबहू हमारे सामने विद्यमान है। अंतर केवल इतना है कि तब साहूकार बैल छीनता था, आज बैंक उसकी ज़मीन नीलाम करता है। तब होरी का पुत्र खेत छोड़ शहर की ओर भागता था, आज भी लाखों युवा किसान परिवारों से पलायन कर रहे हैं।
गोदान का होरी इसलिए अमर है, क्योंकि वह एक ऐसे वर्ग का प्रतिनिधि है, जिसकी पीड़ा कालजयी है। उसकी आंखों में अपने खेत के लिए जो सपना था, वह आज भी करोड़ों किसानों की आँखों में जीवित है।
प्रेमचंद की यह भविष्यद्रष्टा दृष्टि ही उन्हें 21वीं सदी में भी उतना ही सार्थक और सामयिक बनाती है, जितना वे अपने समय में थे। उनका साहित्य इस बात का प्रमाण है कि जब तक किसान दुखी रहेगा, गोदान प्रासंगिक रहेगा।
5.2 स्त्री अस्मिता की लड़ाई
निर्मला आज भी जीवित है—वह कभी किसी झुग्गी में अपने अधिकारों के लिए आँसू बहाती है, कभी किसी कस्बाई चौखट पर दहेज के भार से दबी होती है, और कभी किसी विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में अपने विचारों के लिए अकेली पड़ जाती है।
प्रेमचंद का स्त्री-विमर्श किसी वाद का घोष नहीं था, वह समाज की उस अंतर्निहित पीड़ा की साक्षी थी, जिसे अक्सर ‘धैर्य’ और ‘मर्यादा’ के पर्दों के पीछे छुपा दिया गया था। उन्होंने निर्मला, धनिया, सोना और सुमित्रा के माध्यम से स्त्री के उस पक्ष को सामने लाया, जो न केवल पीड़ित है, बल्कि संघर्षशील और आत्मजाग्रत भी है।
आज जब हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं—आरक्षण, शिक्षा, स्वावलंबन और नेतृत्व की भूमिका की चर्चा करते हैं, तब प्रेमचंद की स्त्रियाँ इन नीतियों की आंतरिक चेतना बनकर उभरती हैं। वे दिखाती हैं कि नारी केवल दया की पात्र नहीं, वह समाज-निर्माण की केन्द्रीय शक्ति है।
वर्तमान में जब आधुनिकता के नाम पर स्त्री की स्वतंत्रता को या तो सीमित किया जा रहा है या बाज़ार में परिभाषित, तब प्रेमचंद का स्त्री-दर्शन हमें स्मरण कराता है कि असली सशक्तिकरण वही है, जो स्त्री को विचार, भावना और स्वत्व—तीनों स्तरों पर स्वतंत्र बनाए।
प्रेमचंद की स्त्री आधुनिक विमर्श की जड़ है, जो नारे नहीं देती, लेकिन अपने मौन, संघर्ष और संवेदना से क्रांति की आधारशिला रखती है।
5.3 जातिवाद और सामाजिक न्याय
हालाँकि भारत के संविधान ने हर नागरिक को समानता का अधिकार दिया है, परंतु सामाजिक यथार्थ की भूमि पर आज भी कहीं न कहीं ‘ठाकुर का कुआँ’ सूखा पड़ा है—शरीर से नहीं, मानसिकता से।
प्रेमचंद ने अपने साहित्य में जिस जातिगत अन्याय और सामाजिक विषमता को चित्रित किया, वह केवल वर्ण व्यवस्था की आलोचना नहीं थी, बल्कि मनुष्य की मानवता-विरोधी प्रवृत्तियों की गहराई से पड़ताल थी। चाहे वह ‘सद्गति’ की दुखहरण मिसिरी हो, या ‘ठाकुर का कुआँ’ का गंगी—हर पात्र एक सामाजिक प्रश्नचिन्ह बनकर खड़ा होता है।
आज जब दलित, पिछड़े और वंचित समुदाय अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए जागरूक हो रहे हैं, तब प्रेमचंद का साहित्य संवेदनशीलता और आत्मालोचना की ज़मीन तैयार करता है। वह हमें यह सोचने पर विवश करता है कि क्या हम सचमुच एक न्यायसंगत समाज की ओर बढ़ रहे हैं, या केवल कानूनों और योजनाओं के आडंबर में उलझे हैं?
प्रेमचंद का योगदान यह है कि उन्होंने वंचितों को ‘वर्णन का विषय’ नहीं, बल्कि ‘विचार का केन्द्र’ बनाया। उनकी लेखनी ने ऊँच-नीच के कृत्रिम खांचों को तोड़ने का साहस किया और एक ऐसे साहित्य की रचना की, जिसमें संवेदना ही समानता का पहला कदम बनती है।
उनकी रचनाएँ आज भी हमें चेतावनी देती हैं—यदि समाज का कोई हिस्सा पीड़ा में है, तो संपूर्ण समाज बीमार है। इसलिए प्रेमचंद को पढ़ना, केवल साहित्य पढ़ना नहीं, अपने सामाजिक दायित्व को समझना भी है।
5.4 नैतिकता और मूल्यहीनता का संघर्ष
21वीं सदी का समाज एक ऐसे उपभोक्तावादी युग में प्रवेश कर चुका है जहाँ नैतिकता, संवेदना और आत्मविवेक जैसे मूल्यों को 'अप्रचलित' मान लिया गया है। सफलता की परिभाषा अब संवेदना नहीं, संपदा और प्रदर्शन से तय होती है।
ऐसे समय में प्रेमचंद का साहित्य एक अंतःकरण की पुकार बनकर उभरता है—जो हमें स्मरण कराता है कि मनुष्य केवल एक भोगी प्राणी नहीं, एक नैतिक सत्ता भी है।
प्रेमचंद की कहानियाँ—‘पंच परमेश्वर’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘ईदगाह’—इनमें वह नैतिक संघर्ष निहित है, जिसमें व्यक्ति सुविधाओं के विरुद्ध अपने आत्मिक मूल्य चुनता है। हामिद का चिमटा हो या जुम्मन और अलगू के बीच न्याय का द्वंद्व—ये सब हमें यह सिखाते हैं कि सच्चे अर्थों में मनुष्य वही है जो अपने सिद्धांतों के लिए कठिनाइयाँ झेलने को तैयार हो।
आज जब सामाजिक ताना-बाना अविश्वास, स्वार्थ और छल-कपट से आक्रांत है, प्रेमचंद का साहित्य एक मूल्यात्मक अवलंब प्रस्तुत करता है। वह हमें यह नहीं सिखाता कि कैसे सफल हों, बल्कि यह सिखाता है कि कैसे सजग, संवेदनशील और न्यायप्रिय बना जाए।
प्रेमचंद की यह नैतिक दृष्टि ही उन्हें मात्र कथाकार नहीं, एक युगद्रष्टा चिंतक बनाती है, जिनकी कलम आज भी मूल्यहीनता के अंधकार में मानवता की ज्योति जलाए हुए है।
6. निष्कर्ष
प्रेमचंद केवल एक युग के कथाकार नहीं, साहित्य के माध्यम से सामाजिक आत्मा के शिल्पी हैं। उन्होंने कथा को केवल मनोरंजन का साधन नहीं रहने दिया, बल्कि उसे मानवीय विवेक, नैतिक संघर्ष और सामाजिक परिवर्तन का मंच बनाया।
वे अतीत की बात करते हैं, पर उनकी दृष्टि वर्तमान को छूती है और भविष्य को आलोकित करती है। जब आज का समाज शिक्षा से मूल्य, राजनीति से नैतिकता, और जीवन से संवेदना को खोता जा रहा है, तब प्रेमचंद का साहित्य आत्मा की उस आवाज़ की तरह सामने आता है, जो हमें हमारे भीतर झाँकने को प्रेरित करता है।
उनकी रचनाएँ केवल पढ़ने की वस्तु नहीं, जीवन को समझने का दृष्टिकोण हैं। वे कहानी में नहीं, करुणा में जीवित हैं; संवादों में नहीं, संवेदना में धड़कते हैं।
आज की पीढ़ी जब प्रेमचंद को पढ़ती है, तो वह केवल शब्दों से नहीं, सामाजिक न्याय, मानवीय गरिमा और नैतिकता के स्वप्नों से साक्षात्कार करती है।
इसलिए प्रेमचंद को पढ़ना, अतीत को जानना नहीं, वर्तमान को सुधारना और भविष्य को सँवारना है।
उनकी रचनाएँ आज भी जीवंत हैं—शब्दों में नहीं, संवेदनाओं में; कथानक में नहीं, चेतना में।
7. संदर्भ सूची
प्रेमचंद – गोदान, निर्मला, सेवासदन
डॉ. नामवर सिंह – प्रेमचंद और उनका यथार्थवाद
डॉ. रामविलास शर्मा – प्रेमचंद: पुनर्मूल्यांकन
डॉ. नगेंद्र – हिन्दी साहित्य का इतिहास
डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी – कहानी की खोज में
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