Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

रामचरितमानस

 

रामचरितमानस: चेतना के त्रिगुणात्मक स्पंदन का महाकाव्य—अविद्या से ब्रह्मज्ञान तक का सोपान

✍️ अमरेश सिंह भदौरिया

रामचरितमानस, मात्र एक धार्मिक आख्यान न होकर, मानवीय चेतना के त्रिगुणात्मक विकास का एक परम दार्शनिक और आध्यात्मिक मानचित्र है। इसके किष्किंधा कांड से लंका कांड तक की यात्रा, जिसके केंद्र में सुंदरकांड का आलोक-पुंज है, जीव के 'अहम्' (कर्ता-भाव) से 'ब्रह्म' (परमसत्ता) में विलय की शाश्वत प्रक्रिया को प्रतीकात्मक रूप से उद्घाटित करती है। यह यात्रा अविद्या (अज्ञान), रजोगुण (कर्म-लिप्सा) और तमस (जड़ता) के गहन अंधकार से सत्त्वगुण (शुद्ध ज्ञान) के आलोक तक का एक आंतरिक सोपान है, जहाँ विचार, कर्म और उनका समन्वय आत्मा की परमसत्ता को उद्घाटित करते हैं। यह भारतीय दर्शन के सृष्टि, स्थिति, संहार के त्रय का मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक प्रतिरूपण है।

किष्किंधा कांड: चेतना की 'तामसिक' प्रसुप्ति—अज्ञानजनित निष्क्रियता का गहन चिंतन

किष्किंधा कांड, दार्शनिक रूप से, मानवीय चेतना की उस प्रारंभिक 'तामसिक' अवस्था का प्रतीक है, जहाँ 'ज्ञान' तो अंतर्निहित है, परंतु 'कर्म' के अभाव में वह 'अमसृजित' और जड़ बनी रहती है। यह उपनिषदों में वर्णित उस 'अनादि अविद्या' की स्थिति है, जो जीव को उसके वास्तविक स्वरूप और कर्म के प्रयोजन से विमुख कर देती है।

राम और सुग्रीव, इस कांड के केंद्र में, उस जीवात्मा के प्रतीक हैं जो परिस्थितियों के 'बंधन' में जकड़ी हुई है—राम सीता के वियोग में संतप्त हैं और अपनी दिशा को लेकर असमंजस में हैं; सुग्रीव बाली के भय से आतंकित, अपनी स्वाभाविक कर्मभूमि से विलग, निष्क्रिय पड़े हैं।

यह स्थिति उस 'अज्ञानजन्य जड़ता' का बोध कराती है, जहाँ 'विचार' तो उमड़ते हैं, परंतु वे 'कर्म' में रूपांतरित होने की शक्ति से वंचित होते हैं। यह 'संकल्प-हीन चिंतन' की अवस्था है।

यहाँ 'ज्ञान' का प्रकाश अभी क्षीण है। मन अनगिनत विकल्पों में उलझा है, परंतु किसी एक पर दृढ़ता से स्थापित नहीं हो पाता। जामवंत, हनुमान और अन्य वानरों का चिंतन-मंथन उस 'आंतरिक जिज्ञासा' और 'जिजीविषा' का प्रकटीकरण है, जो अविद्या के अंधकार को भेदने का प्रथम प्रयास है।

यह 'नेति-नेति' के मार्ग से सत्य की ओर बढ़ने का प्रारंभिक चरण है, जहाँ विचारों का निराकरण कर सही दिशा की खोज की जाती है। यह चेतना का वह 'प्रसुप्त' आयाम है, जहाँ आत्मा अपने 'सृष्टिगत उद्देश्य' को तो जानती है—राम का सीता को खोजना और धर्म की स्थापना—परंतु उस तक पहुँचने का मार्ग अभी अदृश्य है।

यह 'ज्ञानयोग' के प्रारंभिक चरण जैसा है, जहाँ चिंतन ही प्राथमिक क्रिया है, परंतु 'कर्म' का सूत्रपात अभी होना शेष है। यह 'शून्य' की स्थिति है, जहाँ से 'सृष्टि' का पहला विचार स्फुरित होता है, परंतु उसे आकार देने की शक्ति अभी अनुभूत नहीं हुई है। यह चेतना की वह 'भूमि' है, जहाँ 'संभावना' के बीज बोए जाते हैं, परंतु उनके 'अंकुरण' की प्रतीक्षा होती है।

लंका कांड: चेतना का 'राजसिक' उन्माद—अहंकार-प्रेरित कर्म का अनियंत्रित नृत्य

लंका कांड, अपने तीव्र, भयानक और विध्वंसक स्वरूप में, चेतना की उस 'राजसिक' (रजोगुण-प्रधान) अवस्था का चित्रण है, जहाँ 'कर्म' की प्रचंडता तो है, परंतु वह 'विवेक' और 'धर्म' के 'प्रकाश' से विमुख होकर केवल 'अहंकार', 'वासना' और 'सत्ता-लिप्सा' के 'अंधकार' में विचरण करती है।

रावण, इस कांड का दैत्य-नायक, उस जीवात्मा का प्रतीक है जिसने तपस्या और वेदज्ञान से अपार शक्ति अर्जित की, परंतु उस शक्ति को 'आत्मज्ञान' के बजाय इंद्रिय-विषयों और 'अहं-स्फूर्ति' में खपा दिया।

यह 'ज्ञान-विहीन कर्म' है, जहाँ क्रियाएँ अनवरत होती रहती हैं, परंतु उनका फल केवल बंधन, दुःख और विनाश है। रावण का 'ज्ञान' यहाँ 'मिथ्या-ज्ञान' में परिवर्तित हो जाता है, क्योंकि वह उसे 'सत्य' की ओर नहीं ले जाता।

यह दार्शनिक रूप से उस चेतना को दर्शाता है, जो 'रजस' के आवेग में अंधाधुंध कर्म करती है—बिना किसी नैतिक या आध्यात्मिक आधार के। यहाँ कर्म का अर्थ केवल 'भोक्तापन', 'अधिकार-प्रदर्शन' और 'स्व-पूर्ति' है।

रावण का विनाश इस 'कर्मफल सिद्धांत' का अकाट्य प्रमाण है कि जब 'ज्ञान' 'प्रज्ञा' में रूपांतरित नहीं होता, और 'कर्म' 'अहं' का दास बन जाता है, तो उसका अंत आत्मविनाश ही होता है।

यह 'अज्ञानजन्य कर्म' है, जहाँ क्रिया तो होती है, परंतु उसके पीछे 'सत्त्व' (शुद्धता) का अभाव होता है, और 'मोह' की प्रधानता होती है। यह उस 'कर्म-बंधन' की पराकाष्ठा है, जहाँ जीव स्वयं को कर्ता मानकर, फलों में आसक्त होकर, कर्म के अनंत चक्र में फँस जाता है।

यह 'संहार' का आंतरिक पहलू है—पुराने, अज्ञान-ग्रस्त और अहंकार-युक्त स्वरूप का विनाश, ताकि नए, ज्ञान-युक्त स्वरूप का उदय हो सके।

लंका कांड यह भी दर्शाता है कि कैसे 'सत्ता' (रावण) और 'बल' (उसकी सेना) भी, जब 'विचार' और 'विवेक' से हीन हो जाते हैं, तो अंततः अपने ही विनाश का कारण बनते हैं। यह एक 'त्रासद नियति' है, जो 'अहं' के चरम उत्कर्ष का अनुसरण करती है।

सुंदरकांड: चेतना का 'सात्त्विक' समन्वय—ज्ञान और कर्म का दिव्य आलोक-पुंज

सुंदरकांड, इस महाकाव्य का 'हृदय' और 'आत्मा', चेतना की उस 'सात्त्विक' (सत्त्वगुण-प्रधान) अवस्था का अनुपम प्रतीक है, जहाँ 'ज्ञान' (विचार) और 'कर्म' (क्रिया) का दिव्य समन्वय होता है।

हनुमान, इस कांड के 'प्रज्ञा-पुंज', उस 'ब्रह्मनिष्ठ कर्मयोगी' का आदर्श स्वरूप हैं, जिसका वर्णन भगवद्गीता में 'स्थितप्रज्ञ' और 'निःसंग कर्म' करने वाले के रूप में किया गया है।

वे अपनी बुद्धि और बल दोनों का पूर्ण संतुलन जानते हैं, कर्म करते हैं, परंतु फल की आसक्ति से मुक्त रहते हैं। यह 'योग' की पराकाष्ठा है, जहाँ 'योगः कर्मसु कौशलम्' (कर्मों में कुशलता ही योग है) चरितार्थ होता है।

हनुमान की प्रत्येक क्रिया एक गहन 'आत्म-ज्ञान' और 'विवेक' से प्रेरित होती है और उसमें 'आत्म-संयम' (इंद्रिय-निग्रह) परिलक्षित होता है। वे लंका में प्रवेश से पहले सूक्ष्म रूप धारण करने का विचार करते हैं (विचार की सूक्ष्मता और स्थिति के अनुकूल ढलने की क्षमता), सीता से मिलने से पहले उनकी मनःस्थिति का आकलन करते हैं (विचार की संवेदनशीलता, परानुभूति और 'अहम्' का विलय), और लंका दहन से पहले उसके रणनीतिक व मनोवैज्ञानिक प्रभावों पर विचार करते हैं (विचार की दूरदर्शिता और उद्देश्यपरक क्रिया)।

यहाँ 'क्रिया', 'ज्ञान' की दासी नहीं, अपितु उसकी 'सहचरी' बन जाती है, जो 'धर्म' के मार्ग पर चलकर 'मोक्ष' की ओर अग्रसर होती है। हनुमान का प्रत्येक 'संकल्प' (विचार) तत्काल 'क्रिया' में परिणत होता है, और प्रत्येक क्रिया 'ज्ञान' से अनुप्राणित होती है।

वे भय और लालच से मुक्त हैं, जो उन्हें निर्भीक और निस्वार्थ कर्म करने में सक्षम बनाता है।

सुंदरकांड दार्शनिक रूप से यह स्थापित करता है कि 'आत्म-साक्षात्कार' और 'परम शांति' (मोक्ष) की उपलब्धि केवल तभी संभव है, जब चेतना 'अविद्या' और 'अहंकार' के बंधनों से मुक्त होकर 'ज्ञान' और 'कर्म' के बीच सामंजस्य स्थापित करे।

हनुमान का चरित्र उस 'दिव्य मानव' का प्रतीक है, जो 'ब्रह्म' में स्थित होकर 'कर्म' करता है—वह, जो 'अहम्' से ऊपर उठकर 'सर्वम्' में लीन हो जाता है।

यह चेतना का वह परम सोपान है, जहाँ 'जीव' अपने 'शिव' स्वरूप को पहचानता है और 'सच्चिदानंद' (सत्-चित्-आनंद) स्वरूप में प्रतिष्ठित होकर, 'मोक्ष' के परम लक्ष्य को प्राप्त करता है।

यह उस 'प्रज्ञा' का आलोक है, जो स्वयं को प्रकाशित कर समस्त संसार को भी प्रकाशित करती है, और अंततः 'स्थिति' (स्थिरता) को प्राप्त करती है, जो 'ब्रह्मज्ञान' का अंतिम फल है। यह जीव के जीवन में 'ईश्वर-निष्ठा' और 'निःस्वार्थ सेवा' के महत्व को भी उजागर करता है, जहाँ समस्त कर्म परमेश्वर को समर्पित होते हैं।





Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ