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Dr. Srimati Tara Singh
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राम का वनवास

 

राम का वनवास : जनचेतना बनाम सत्ता का दंभ

भारतीय मनीषा में रामायण केवल धार्मिक आख्यान नहीं है।
यह लोकमानस का ऐसा दर्पण है जिसमें सत्ता, समाज और संस्कृति के जटिल ताने-बाने के बीच मनुष्यत्व की खोज और न्याय का संघर्ष उभरता है।
भगवान राम का वनवास इसी संघर्ष का प्रतीक है — जहाँ सत्ता के केंद्र से दूर, हाशिए पर छूटे वर्गों को संगठित कर सत्ता के दंभ को ललकारने की मिसाल रची गई।

सत्ता का दर्प और समाज का विस्थापन

लंका का सम्राट रावण उस समय की सम्पूर्ण भौतिक सत्ता का पर्याय था।
जिसके दरबार में दिग्पाल — दिशाओं के स्वामी — तक चाकर बन खड़े होते थे।
सोने की लंका, रत्नजटित महल, देवताओं की विजय पताका, और अपार बलशाली सेनाएँ — रावण के राज्य का ऐसा वैभव था कि त्रिलोक तक उसका नाम आतंक और दंभ का प्रतीक बन गया था।

रावण की सत्ता केवल बाह्य रूप से समृद्ध नहीं थी, वह धर्म और मर्यादा की सीमाओं का अतिक्रमण कर बनी शक्ति थी।
उसकी महत्वाकांक्षा ने न केवल सत्ता को केंद्रित और भौतिक सुख-संपत्ति पर आधारित बना दिया, बल्कि समाज के उन वर्गों को भी हाशिए पर ढकेल दिया,
जो आर्य व्यवस्था, नगर सभ्यता और राजसत्ता की मान्यताओं से परे थे।

रावण के राज्य में शक्ति का केंद्र सिंहासन और राजसभा थी।
वह शक्ति जिसकी मापदंड संपत्ति, युद्ध विजय और भौतिक उपलब्धियों से तय होती थी।
वहीं समाज का एक बड़ा हिस्सा — वनवासी, गिरिजन, निषाद, शबर, वानर, भालू — जिन्हें न राजसभा में स्थान था, न धार्मिक यज्ञों में आसन।
वे उस समय की आर्य व्यवस्था और सत्ता के दायरे से बाहर थे।

सत्ता का यही दंभ उसकी सबसे बड़ी कमजोरी थी।
जब कोई महाशक्ति समाज के एक बड़े हिस्से को उपेक्षित कर केवल अपने दरबार की स्वीकृति और शक्तिशाली सहयोगियों के सहारे स्वयं को अजेय समझने लगे,
तो वह भीतर ही भीतर खोखली होने लगती है।

रावण के वैभव में भी यही विषाणु पनप रहा था।
वह अपने दरबार में देवताओं और असुरों को रख सकता था, पर वन में रहने वाले वनवासियों, निषादों और वानरों को कभी सम्मान नहीं दे सका।
उसने लोक के जीवन-संस्कार और वनांचलों की आत्मा को कभी समझा ही नहीं।
उसका साम्राज्य नगरों और स्वर्ण महलों तक सीमित था, जबकि उस समय भारतवर्ष की जनचेतना वनों, नदियों और पर्वतों में वास करती थी।

महाशक्तियाँ अक्सर इसी भ्रम में रहती हैं कि राजमहल और दरबार ही संपूर्ण सत्ता है।
लेकिन सच्चाई यह है कि समाज का वह उपेक्षित हिस्सा, जिसे वे कभी महत्व नहीं देतीं,
जब एकजुट होता है, तो सिंहासन और स्वर्णमंडित लंकाएँ भी धूल में मिल जाती हैं।

रावण का दंभ और उपेक्षा यही संदेश देते हैं —
जो सत्ता समाज के वंचित, उपेक्षित और पीड़ित वर्ग को दरकिनार कर अपनी भव्यता का विस्तार करती है,
वह अंततः अपने ही बोझ और अनादर से ध्वस्त हो जाती है।

राम ने इसी विस्थापित समाज को संगठित कर रावण की सत्ता को ललकारा और सिद्ध कर दिया कि
भौतिक शक्ति की दीवारें जनबल और न्याय की आवाज़ के आगे टिक नहीं सकतीं।

राम का वनवास : सत्ता से विस्थापन नहीं, जनचेतना का उदय

यदि राम के वनवास को केवल राजाज्ञा या शाप का परिणाम माना जाए, तो यह रामायण की आत्मा को अधूरी व्याख्या देना होगा।
राम का वनगमन वस्तुतः सत्ता के केंद्रीकृत दंभ से बाहर निकलकर उस समाज का स्पंदन समझने की यात्रा थी,
जो वर्षों से सत्ता के मुख्य गलियारों से परे, जंगलों, तटों और घाटियों में वंचना और उपेक्षा का जीवन जी रहा था।

राम के वनवास ने सत्ता की भव्यता से अलग सामाजिक चेतना का नया केंद्र रचा।
जहाँ न राजसिंहासन था, न वैदिक यज्ञों की गूंज, न आभूषणों से सजी महल की शोभा।
वहाँ केवल थी — मानवता की सच्ची पीड़ा, उपेक्षा में पलता आत्मसम्मान और न्याय की जिजीविषा।

राम ने अपनी वनयात्रा के माध्यम से
निषादराज गुह की नौका में तैरती वंचितता को पहचाना।
शबरी की झोपड़ी में भक्ति और सम्मान की मिठास को महसूसा।
हनुमान की भक्ति में सेवा और संकल्प का तेज देखा।
अंगद की धैर्यपूर्ण वीरता में उपेक्षित वंश का स्वाभिमान देखा।
सुग्रीव की मित्रता में हाशिए पर खड़े वर्ग की पीड़ा और प्रतिकार का स्वरूप देखा।

राम के लिए ये वनवासी, वानर, भालू केवल अरण्यजीवी प्राणी नहीं थे।
वे न्याय के सिपाही थे, जो वर्षों से सत्ता के छाया-पक्ष में दबे हुए अपनी पहचान और हक की प्रतीक्षा कर रहे थे।
राम ने उन्हें केवल संगठित नहीं किया,
बल्कि उनकी अस्मिता को वैभवपूर्ण न्याययात्रा में सहभागी बनाया।
जहाँ वे केवल सेनापति या सिपाही नहीं,
बल्कि धर्मयुद्ध के निर्णायक पात्र बने।

राम ने शासक वर्ग की उस संकीर्ण दृष्टि को खंडित किया,
जो समाज को केवल नगरों और राजदरबारों तक सीमित मानती थी।
उन्होंने प्रमाणित किया कि
जनबल का वास्तविक स्रोत राजमहलों में नहीं,
बल्कि झोपड़ियों, वनों और नदी तटों में बिखरी संवेदनाओं और संघर्षशील हृदयों में बसता है।

यह वही समाज था, जिसे मुख्यधारा ने भुला दिया था,
राम ने उसी समाज को
सम्मान दिया, संगठन दिया और संघर्ष का मंच दिया।
राम का वनवास वस्तुतः
राजसत्ता के गर्व का विसर्जन कर,
जनचेतना के अभ्युदय का उद्घोष था।

वे अपने वनवास में न सिर्फ सीता की खोज कर रहे थे,
बल्कि उस खोई हुई सामाजिक चेतना की भी खोज कर रहे थे,
जो महलों की दीवारों से बाहर,
धूल में सने, पर आत्मगौरव से संपन्न समाज की गोद में पल रही थी।

राम ने सिद्ध किया कि
न्याय और धर्म के संग्राम में वही विजयी होता है,
जो सत्ता की कृपा नहीं,
जनचेतना की संगठित शक्ति का सहारा लेता है।
और वही सत्ता टिकाऊ होती है,
जो झोपड़ियों तक अपने न्याय का स्पर्श कर सके।

लंका विजय : सत्ता बनाम जनबल की ऐतिहासिक टक्कर

राम का लंका पर चढ़ाई करना मात्र एक पतिव्रता स्त्री की वापसी का अभियान नहीं था।
यह उस युग की सत्ता के दंभ, अन्याय की जड़ता और समाज की उपेक्षा के विरुद्ध खड़ा एक सशक्त सामाजिक उद्घोष था।
जहाँ राम ने दिखा दिया कि सत्ता के स्थापत्य और भौतिक वैभव की दीवारें जब जनचेतना के संगठित प्रवाह से टकराती हैं, तो गिरकर बिखर जाती हैं।

लंका, जहाँ स्वर्णमंडित महलों की चकाचौंध में न्याय का गला घोंटा गया था,
और जहाँ दिग्पालों से लेकर महाबली राक्षस तक केवल सम्राट के आदेश पर चलने को बाध्य थे,
उसके सम्मुख राम ने एक ऐसी सेना खड़ी की,
जो न राजपुत्र थे, न युद्धशिक्षित सेनानी।
वे थे — वानर, भालू, गिरिजन, निषाद और वनवासी,
जो धर्म और न्याय की भावना से संगठित होकर, सत्ता के दंभ को चुनौती देने उतर पड़े।

काठ की नावों और पत्थरों से बना रामसेतु केवल तकनीकी अद्भुतता नहीं थी,
वह वंचित समाज की संगठित आस्था और अपराजेय संकल्प का प्रतीक था।
जहाँ भव्य सेनाओं के समक्ष,
अरण्यजीवी, असहाय, पर आत्मगौरव से भरे जनबल ने संगठित होकर इतिहास की धारा को मोड़ दिया।

राम ने सिद्ध कर दिया कि
राजसिंहासन न्याय का पर्याय नहीं होता।
सत्ता यदि अन्याय, दंभ और उपेक्षा पर टिकी हो,
तो झोपड़ियों, वनांचलों और घाटियों में चुपचाप धड़कती जनचेतना भी, जब संगठित होती है, तो उसे उखाड़ फेंकने का सामर्थ्य रखती है।

लंका युद्ध उस काल का लोकतांत्रिक जनसंगठन था।
जहाँ कोई सेना न वेतन पर लड़ी, न लोभ में।
हर योद्धा केवल न्याय की विजय, अन्याय के विनाश और समाज की गरिमा के लिए रणभूमि में उतरा।
यह युद्ध उन सत्ता संरचनाओं के विरुद्ध था,
जो न्याय को केवल दरबारों तक सीमित रखती हैं और जन को सत्ता का चाकर बना देना चाहती हैं।

राम ने दिखा दिया कि
न्याय की विजय के लिए समृद्ध महल और सुनियोजित सेनाएँ नहीं,
बल्कि संगठित जनचेतना और धर्मभीरु संकल्प चाहिए।

लंका विजय केवल भौतिक युद्ध नहीं था,
बल्कि एक वैचारिक और सामाजिक क्रांति थी।
जिसने यह स्पष्ट कर दिया कि
सत्ता का दंभ यदि अन्याय पर खड़ा हो,
तो उसकी भव्यता क्षणिक है।
और
वंचित, उपेक्षित समाज यदि संगठित होकर खड़ा हो जाए,
तो वह किसी भी सत्ता-सिंहासन को जड़ से उखाड़ सकता है।

आज के समय में भी यह संदेश उतना ही प्रासंगिक है।
जहाँ सत्ता अपनी सीमाओं में सीमित हो रही है,
वहीं समाज के अंतिम छोर पर खड़ा व्यक्ति राम की वनयात्रा और लंका विजय से यह सीख सकता है कि
सम्मान, न्याय और अस्मिता की रक्षा सत्ता से नहीं,
अपनी संगठित चेतना से की जाती है।

समकालीन सन्दर्भ में सामाजिक संदेश

आज का समय भी सत्ता की चकाचौंध और समाज की बिखरती परछाइयों से जूझ रहा है।
जहाँ एक ओर संपन्न वर्ग, उच्च सत्ता-प्रतिष्ठान और वैश्विक पूंजी अपने दंभ और आत्ममुग्धता में डूबे हुए हैं,
वहीं दूसरी ओर समाज का एक बड़ा हिस्सा हाशिए पर धकेला जा रहा है।
उनकी आवाज़ें सत्ता के राजप्रासाद तक पहुँचने से पहले ही दबा दी जाती हैं।

ऐसे में राम का वनवास और लंका विजय केवल पौराणिक आख्यान नहीं,
बल्कि समकालीन समाज के लिए एक वैचारिक औजार हैं।
वे हमें सिखाते हैं कि
समाज की असली शक्ति न सिंहासनों में है, न भव्य भवनों में,
बल्कि उस जनचेतना में है, जो उपेक्षा में भी अपराजेय बनी रहती है।

राम ने वनवास में वही किया, जो आज के समाज की सबसे बड़ी ज़रूरत है —
बिखरे, उपेक्षित और विस्थापित समाज को संगठित कर, उसे स्वाभिमान और सम्मान का मंच देना।
उन्होंने दिखा दिया कि
सत्ता अगर अन्याय पर टिकी हो, तो हाशिए पर खड़ा व्यक्ति भी जब संगठित होता है,
तो महाशक्ति के दंभ को धूल में मिला सकता है।

आज जब धर्म, न्याय और लोकसत्ता पर अधिकारवाद और दंभ का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है,
तब राम केवल एक आदर्श चरित्र नहीं,
बल्कि एक सामाजिक उद्घोष हैं।
वे हमें बताते हैं कि
न्याय की लड़ाई सत्ता के गर्भगृह में नहीं लड़ी जाती,
बल्कि वनों, झोपड़ियों, घाटियों और उपेक्षित समाज की संगठित चेतना में उसका बीज बोया जाता है।

राम का वनवास सिखाता है कि
हर युग में सत्ता तब तक अधूरी है, जब तक वह समाज के अंतिम व्यक्ति तक न्याय और गरिमा का स्पर्श न पहुँचा दे।
और यदि ऐसा न हो, तो जनचेतना की आग एक दिन उस सत्ता को भस्म कर देती है।

आज के युग में राम की परंपरा केवल रामनामी ओढ़ लेने का नाम नहीं है,
बल्कि उपेक्षितों की आवाज़ बनने, हाशिए के समाज को संगठित करने और अन्याय के विरुद्ध निर्भीक खड़े होने का नाम है।
यह संदेश हर युग, हर व्यवस्था और हर सत्ताधारी वर्ग के लिए उतना ही प्रासंगिक है,
जितना त्रेता में रावण के लिए था।

अर्थगर्भित निष्कर्ष

राम का वनवास केवल एक राजनिर्वासन की कथा नहीं था।
वह सत्ता की भव्यता, दंभ और अन्याय के विरुद्ध
समाज की सशक्त, संगठित चेतना का जागरण था।
राम ने सिद्ध किया कि
धर्म और न्याय की विजय कभी सत्ता के वैभव से नहीं,
बल्कि जनशक्ति की अपराजेय भावना और संगठन से होती है।

हर युग, हर काल और हर व्यवस्था को
राम का यह वनवास और लंका विजय यही सिखाता है —
कि अधर्म चाहे जितना विराट हो,
वह जनबल की संगठित ज्वाला के सामने टिक नहीं सकता।
सत्ता यदि अन्याय पर टिके, तो वह क्षणभंगुर है।
और उपेक्षित जनसमूह यदि अपनी चेतना और स्वाभिमान में संगठित हो जाए,
तो लंका जैसी महाशक्ति भी रेत का महल बन जाती है।

राम केवल एक चरित्र नहीं,
हर काल का सामाजिक उद्घोष हैं।
जो समय-समय पर हमें याद दिलाते हैं कि
न्याय का संघर्ष सत्ता की गोद में नहीं,
झोपड़ियों, अरण्यों और वंचित समाज के स्वाभिमान में पलता है।

—अमरेश सिंह भदौरिया







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