पुत्र प्रेम
चलना सीखा जब तूने,
मैंने ज़मीन पर बिछा दिए अपने सपने।
तेरी पहली मुस्कान में,
मैंने देखी थी पूरी कायनात की चमक।
तेरी बातों में जब आई तुतलाहट,
लगने लगा—शब्दों को नया जीवन मिल गया है।
तेरे रोने से डरता रहा मैं,
कि कहीं मेरी असमर्थता तुझे न छू ले।
हर परीक्षा में खुद को आँका,
तेरे भविष्य के पैमाने पर।
तेरी एक मुस्कान की खातिर,
मैंने कितनी ही रातें जाग कर काटी।
अब जब तू बड़ा हो चला है,
अपने सपनों के आकाश में उड़ान भर रहा है,
तो भी मेरी निगाहें वही तलाशती हैं—
वो नन्हा सा हाथ, जो उंगली पकड़कर चलता था।
पुत्र!
तू मेरा गौरव है, पर तू मेरा विस्तार भी है,
मेरे अधूरे स्वप्नों का संपूर्ण उत्तर।
मैं तुझमें जीना चाहता हूँ
पर तेरी राहों को अपनी परछाइयों से नहीं ढकना चाहता।
बस इतना चाहता हूँ—
कि जब तू सफल हो, तो मेरी आँखें भीग जाएँ
और जब तू थक जाए,
तो तुझे याद आए—पिता कभी थका नहीं था तुझे थामते हुए।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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