पुस्तकें
वे केवल काग़ज़ नहीं होतीं,
कुछ शब्दों की मढ़ाई नहीं,
बल्कि हर पन्ना —
एक मनुष्य की साँस,
एक युग की धड़कन,
एक गुमनाम दीया,
जो अँधेरे में टिमटिमाता है।
पुस्तकें —
स्मृतियों की पगडंडी होती हैं,
जहाँ बीते हुए बचपन की
धूल-धूसरित खुशबू
अभी तक साँस लेती है।
कभी वे युद्ध की रणभेरी हैं,
कभी प्रेम की गीली चिट्ठी,
कभी विरह में डूबी
कोई अधूरी पंक्ति,
तो कभी किसी बूढ़े दार्शनिक की
अंतिम गवाही।
पुस्तकें —
सिरहाने रखी जाती हैं,
कभी ओढ़नी के नीचे,
तो कभी किसी धूल जमी रैक में उपेक्षित,
फिर भी वे जीवित रहती हैं,
पढ़े जाने की प्रतीक्षा में।
और एक दिन —
जब कोई उन्हें स्नेहिल स्पर्श देता है,
तो वे खुल पड़ती हैं
सालों की मौन चुप्पी के बाद,
और सुना देती हैं
वो सब,
जो आज भी
अनकहा है।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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