"प्रेम की चुप्पी" (ग्राम्य परिवेश में)
वो नहीं लिखती प्रेमपत्र,
न ही भेजती दिल के इमोजी,
उसका प्रेम
हवा में नहीं,
संघर्षों की ज़मीन पर उगता है।
वो प्रेम करती है
सिरहाने रखे गर्म पानी की बोतल में,
सुबह की अधजगी चाय में,
या स्कूल जाते बच्चों की थैली में
चुपके से रखे दो पराठों में।
बैसवारा की माटी सी है वह—
साधारण, पर गहरी।
उसके आँचल की गंध
अजीतपुर की सरसों जैसी महकती है।
और उसका प्यार,
ठीक उस कुएँ जैसा,
जो सबसे गरम दोपहर में भी
ठंडा मीठा जल देता है।
जब खेत से लौटते हैं लोग थके हारे,
वो पूछती नहीं,
बस चुपचाप रख देती है
सरसों का साग और मोटी रोटी—
उसकी चुप्पी में
शब्दों से गाढ़ा प्रेम लिपटा होता है।
वो जानती है,
प्रेम कोई उत्सव नहीं,
जो साल में एक दिन फूलों से मनाया जाए,
बल्कि
हर रोज़ की साधना है—
कभी आटे में,
कभी आँसुओं में,
कभी आशीष में...
बहता है चुपचाप।
उसका प्रेम
त्रिवेणी संगम-सा है—
जहाँ भावनाएँ, कर्तव्य और त्याग
एक साथ बहते हैं…
बिना शोर, बिना प्रचार।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY