प्रतीक्षा का अम्लान दीप
धुँधली साँझ की बाँहों में लिपटी
गंगा, थकी हुई धाराओं सी,
किनारे किसी एकाकी दीपक की भाँति
मन की वीणा पर टिकी थी।
तट पर बैठा केवट —
ना नाविक, ना साधक,
केवल एक निशब्द पुकार,
जो लहरों में स्पंदन खोजती थी।
वायु भी आलस भरी थी,
किन्तु उसके हृदय की धड़कनों में
किसी अनाम पदचाप की गूँज थी।
प्रतीक्षा, मानो
अदृश्य सन्ध्या का कोई आर्तनाद बन
उसके नेत्रों में दीपित थी।
गगन में चंद्र,
जल में काँपती उसकी छाया,
और केवट के प्राणों में
एक अस्फुट मंत्र : "राम..."
कौन था वो?
जो काल की सीमाओं को लाँघ
पाँव धरेगा इस धरा पर।
केवट जानता था,
उसके चरणों में
अनंत के गुप्त अर्थ बंधे होंगे।
फिर उतरते चरणों की आहट,
जल पर कंपित परछाइयाँ,
और उस शून्य गगन में
भक्ति का अम्लान दीप प्रज्वलित हुआ।
"पाँव पखारने दो,"
केवल एक वाक्य नहीं था,
वो शताब्दियों से झुलसती
प्रेमाकुल आत्मा का उद्घोष था।
उसने चरण-धूल को
जल में नहीं प्रवाहित किया।
उसे हृदय-कुंज की गोपनीय सीपी में रख,
स्मृतियों की रजत धाराओं से धोया।
और जब राम मुस्कुराए,
वो कोई तात्कालिक हास्य नहीं था।
वो सृष्टि की प्रथम रचना के समय से
लिखी प्रतीक्षा का उत्तर था।
आज भी गंगा की लहरें
उसी दीपक की लौ पर नृत्य करती हैं।
प्रेम की भाप में घुला
भक्ति का एक अदृश्य स्वर —
"राम... राम..."
निरंतर उस जल में प्रवाहित है।
क्योंकि जब कोई मन
प्रेम और प्रतीक्षा के पारावार में डूबता है,
तब समय, संप्रदाय, शब्द — सब छूट जाते हैं।
और रह जाती है —
केवल भक्ति,
जो स्वयं ईश्वर का ह्रदय है।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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