पतंग
आसमान के खाली कैनवस पर
एक रंगीन सपना टाँकती है—
पतंग।
धागों से नहीं,
उम्मीदों से बंधी होती है वह,
हर झटका,
हर चक्कर
किसी संघर्ष की तरह
उसे और ऊपर उठाता है।
नीचे से कोई बच्चा हँसता है,
ऊपर देखता है
जैसे कोई प्रश्न पूछ रहा हो—
"क्या मैं भी उड़ सकता हूँ?"
हवा की चाल
कभी दोस्त होती है,
कभी द्रोही।
पर पतंग को उड़ना ही होता है—
क्योंकि उसका धर्म है
आकाश से प्रेम।
कभी कोई माँ
छत पर खड़ी
हवा की दिशा देखकर
अपने बेटे की मुस्कान को मापती है,
तो कभी कोई बूढ़ा पिता
धागा थामे
बचपन की ऊँचाई में लौट जाना चाहता है।
पतंगें
केवल काग़ज़ नहीं होतीं—
वे आसमान में लिखे गए
हज़ारों अधूरे पत्र होती हैं,
जो कहते हैं—
"हम अब भी उड़ने में विश्वास रखते हैं।"
कटकर गिरना
उसकी हार नहीं,
बल्कि यह जानना होता है—
कि गिरकर भी
उड़ने का सपना
किसी और हाथ में चला गया।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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