मुखौटे
हर दिन
हम पहनते हैं एक नया चेहरा—
कभी मुस्कुराहट का,
कभी सहमति का,
कभी उस मौन का
जो भीतर से चीख रहा होता है।
हम सीख चुके हैं
कि कैसे दुख को छुपाना है
एक मीठे शब्द में,
कैसे असहमति को
मौन की चादर में ढाँप देना है।
अब रिश्ते
भाव से नहीं,
प्रभाव से चलते हैं।
सच्चाई
तमीज़ से हार जाती है,
और मुखौटा
'व्यक्तित्व' कहाने लगता है।
कोई पूछता भी नहीं—
"तुम सच में ठीक हो?"
क्योंकि जवाब में
सच सुनने का साहस
अब किसी के पास नहीं।
हर शाम
हम थके होते हैं—
काम से नहीं,
मुखौटे सँभालते सँभालते।
कभी-कभी लगता है,
चेहरा खो गया है,
सिर्फ़ मुखौटा रह गया है।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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