कुरुक्षेत्र
हर युग में जन्म लेता है एक कुरुक्षेत्र,
जहाँ युद्ध तलवारों से नहीं,
संघर्ष होता है—
मौन बनाम मुखरता,
सिद्धांत बनाम सुविधा का।
जहाँ अर्जुन खड़ा होता है,
नहीं पहचान पाता—
शत्रु और स्नेही के बीच का अंतर,
क्योंकि सामने खड़े होते हैं—
अपने: गुरु, बंधु, कुल-धर्म।
धर्म साफ़ होता है,
पर उसे निभाना कठिन,
क्योंकि अधर्म अब
कौरवों के कवच में नहीं,
संस्थागत कुर्सियों के भीतर छुपा होता है।
कृष्ण अब रथ नहीं चलाते,
वो अंतरात्मा की आवाज़ बनकर
धीरे से कहते हैं—
“उठो, और लड़ो।
मौन भी कभी-कभी
पाप का सहभागी बन जाता है।”
कुरुक्षेत्र अब केवल एक स्थान नहीं,
ये हर वो पल है—
जब तुम्हें
सुविधा चुननी होती है या सत्य।
हर बार जब तुम सोचते हो—
"चुप रह लें... क्या फ़र्क पड़ता है…"
वहीं से युद्ध आरंभ होता है।
क्योंकि—
धर्म की रक्षा
ध्वनि नहीं, साहस माँगती है।
और जो अर्जुन
अपने ही प्रश्नों से हार जाए—
उसका गांडीव
शस्त्र नहीं, शंका बन जाता है।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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