क्षरित होते जीवन मूल्य
कभी
जो मूल्य
पीढ़ियों के आँगन में
दीये की लौ की तरह
टिमटिमाते थे,
जो दादी की थपकी में,
पिता की डाँट में,
माँ के आँचल की गंध में
और मिट्टी सने पाँवों की
सदियों पुरानी लीक में
सहेजे जाते थे —
वे आज
स्लोगन बनकर दीवारों पर
पोस्टरों में लटके हैं।
ईमानदारी अब
सीवी में लिखी जाती है,
सदाचार भाषणों में बचा है,
संयम उपदेशों में सिमट गया है,
और कर्तव्य —
बड़े-बड़े सेमिनारों की
फीकी चाय में घुलकर रह गया है।
जहाँ रिश्ते
मोबाइल नेटवर्क की तरह
व्यस्त या अस्थायी हो चले हैं,
जहाँ ‘सॉरी’ और ‘थैंक यू’
सिर्फ औपचारिकताएँ हैं,
वहाँ जीवन मूल्य
रेत की दीवार-से
ढहते जा रहे हैं।
जो पहले
संस्कार थे,
अब 'स्किल सेट' हो गए हैं,
और आदर्श —
अर्थशास्त्र की पंक्तियों में
मूल्यविहीन ‘वेरिएबल’ बन गए हैं।
काश…
कहीं फिर किसी आँगन में
एक नीम का पेड़ उग आये,
जिसकी छाँव तले
दादी की कोई पुरानी कथा
फिर से सुनाई जाये,
और कोई नन्हा बच्चा
कह सके —
"मुझे भी वैसा बनना है..."
पर इस भीड़ में
अब सिर्फ़ भीड़ है,
आदमी कम,
आदमी के भीतर
आदमी और भी कम।
जीवन मूल्य
आज भी चुपचाप
किसी उपेक्षित गली में
किसी जर्जर मंदिर के टूटे चौक पर
दिए की बुझती लौ-से
जल रहे हैं।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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