खलिहान
धूप में भीगता
पसीने से चमकता
वह सूना नहीं होता—
खलिहान बोलता है
हर रोटी की कहानी।
धान की गंध में
बसी होती हैं
माँ की हथेलियाँ,
और भूसे के ढेरों में
छिपा होता है
बचपन का एक छुपन-छुपाई खेल।
कंधे पर गट्ठर ढोती
वह स्त्री
केवल अन्न नहीं
पूरे वर्ष की आशा
बाँध लाती है झोले में।
बैल की घंटियाँ
आकाश की चुप्पी तोड़ती हैं
और नंगे पाँव
खलिहान को नापते बच्चे
धूल में नहीं—
भविष्य में खेलते हैं।
तह की गई चादर की तरह
दिन ढलता है—
फिर भी कोई थकान
शिकायत नहीं बनती,
क्योंकि
मिट्टी की पूजा
शब्दों से नहीं,
श्रम से होती है।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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