हमारी सहयात्रा
(इक्कीस वर्षों की आत्मिक संगति पर एक आत्मकथ्य)
कभी-कभी जीवन कोई बड़ी घोषणा नहीं करता।
वह बस चलता है—मौन में, सहजता में, जैसे कोई पुराना राग धीरे-धीरे आत्मा में उतरता है।
आज, हमारे वैवाहिक जीवन के इक्कीस वर्ष पूर्ण हो रहे हैं।
इन वर्षों को देखते हुए यह कहना कठिन है कि हमने समय को जिया या समय ने हमें।
यह साथ केवल वर्षों की गिनती नहीं रहा—यह दो आत्माओं का एक सतत संवाद रहा है—
शब्दों से परे, पर अर्थों से परिपूर्ण।
जब हमने साथ चलना आरम्भ किया था,
मैं केवल एक स्वप्नद्रष्टा था—शब्दों में डूबा, भविष्य के रेशमी ख्वाब बुनता हुआ।
पर तुमने मुझे वर्तमान की ठोस ज़मीन दी—वह ज़मीन,
जहाँ प्रेम कोई प्रदर्शन नहीं,
बल्कि चुपचाप निभाए गए उत्तरदायित्वों की सघन कविता होता है।
तुमने मुझे सिखाया कि
जीवन कोई विराट महाकाव्य नहीं,
बल्कि रसोईघर की भाप,
बच्चों की कापियों के बीच भटके अक्षर,
बिजली के बिल, माँ की चिंता, और थकी शामों की गरम चाय में रचा गया एक धीमा, जीवंत गीत है।
तुमने यह भी सिखाया कि
प्रेम को चिल्लाने की ज़रूरत नहीं होती।
वह मौन में फूंकता है,
कभी आँखों की कोर से बहकर,
तो कभी चुपचाप रोटी पर घी बनकर उतरता है।
तुम्हारे मौन ने मेरे भीतर की सबसे सुंदर कविता को जन्म दिया—
जो किसी पन्ने पर नहीं,
बल्कि तुम्हारे स्पर्श में, तुम्हारे समर्पण में और तुम्हारी उपस्थिति में दर्ज होती रही।
दार्शनिक कहते हैं,
"प्रेम आत्मा का विस्तार है।"
और तुम्हारे साथ मैंने जाना—
कि आत्मा जब किसी और के लिए जगह बनाना सीख ले,
तो वही प्रेम, सहचरण और ईश्वर का पहला स्पर्श बन जाता है।
इन इक्कीस वर्षों में हमने बहुत कुछ पाया—
सुख, थकान, संघर्ष और आह्लाद।
कुछ खोया भी—समय, अवसर, शायद कुछ सपने।
पर जो नहीं टूटा, वह था विश्वास।
और विश्वास—वह मौन पुल है,
जो दो व्यक्तित्वों को बाँधता ही नहीं,
बल्कि उन्हें निरंतर एक-दूसरे के और निकट लाता है—
हर झगड़े के बाद, हर असहमति के पार।
तुमने मेरा जीवन केवल 'पूर्ण' नहीं,
'संपूर्ण' किया—
जहाँ प्रेम में भी एक गरिमा है,
और पीड़ा में भी एक सौंदर्य।
तुम्हारे बिना मैं शायद बस एक लेखक होता—
अर्थहीन शब्दों का व्यापारी।
पर तुम्हारे साथ मैं वह अर्थ बन सका,
जो केवल प्रेम में बार-बार एक-दूसरे को ‘पुनः चुनने’ से उपजता है।
आज—इस 21वीं वर्षगाँठ पर—
न कोई आभूषण है, न कोई वचन, न कोई चमत्कारी पंक्ति।
बस एक प्रार्थना है—
कि आने वाले वर्षों में भी मैं तुम्हें वैसे ही देख सकूँ—
जैसे कोई कवि अपनी पहली कविता को पढ़ता है—
काँपते हुए, विस्मित होकर, और हर बार कुछ नया पाकर।
तुम मेरी सबसे मौन, सबसे स्थायी कविता हो।
और मैं,
अब भी सिर्फ तुम्हारा पाठक।
सदैव तुम्हारा,
– अमरेश सिंह भदौरिया
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