Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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दोमुंहे लोग

 

दोमुंहे लोग

वे मिलते हैं मुस्कराहटों के मुखौटे पहन,
जैसे आत्मीय हों—
पर आत्मा से कोसों दूर।
एक चेहरा सुबह का—
दूसरा संध्या का—
और दोनों ही झूठ से सने!

इनकी बातों में शहद होता है,
पर मंशा में ज़हर टपकता है।
ये हाथ मिलाते हैं
पर नीयत जेब टटोलने की होती है।

जहाँ सिद्धांत की बात आती है—
वहाँ चुप्पी ओढ़ लेते हैं।
और जहाँ लाभ की गंध हो,
वहाँ सबसे पहले पहुँचते हैं।

ये रिश्तों को सौदों में बदलते हैं,
ईमान को 'स्थितियों के अनुसार' जीते हैं।
नक़ाब ओढ़े इस भीड़ में—
सच्चा चेहरा
कभी किसी की आँख नहीं देख पाती।

दोमुंहे लोग—
समाज के वो दीमक हैं
जो दीवारों पर नहीं,
जड़ों में लगते हैं।

©®अमरेश सिंह भदौरिया





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