धुंधलका
धुंधलका
बस शाम के आसमान में नहीं होता,
कई बार
ये इंसान की आँखों में उतर आता है—
जब सच सामने खड़ा होता है,
पर उसे पहचानने की हिम्मत नहीं होती।
यह वो वक़्त है
जब उजाले और अंधेरे के बीच
कोई स्पष्ट रेखा नहीं होती,
जहाँ
अधूरे सच भी पूरे लगते हैं,
और झूठ—थोड़े सच से ढके होते हैं।
धुंधलका
वो समय है
जब लोग बोलते तो हैं,
पर सच नहीं कहते।
सुनते तो हैं,
पर समझना नहीं चाहते।
यह वो परछाई है
जहाँ इरादे भी धुँधले हो जाते हैं,
और नीयत—
धुँध में अपना चेहरा छुपा लेती है।
धुंधलके में
कोई रास्ता खोया नहीं होता,
पर तय भी नहीं होता।
यह
एक असमंजस की चुप्पी है—
जो समय को थाम लेती है,
लेकिन बदलाव से डरती है।
पर याद रखो—
धुंधलका चाहे जितना गहरा हो,
उजाला लौटता ही है।
शायद धीमे,
शायद थका हुआ,
पर लौटता ज़रूर है—
क्योंकि
धुँध सिर्फ़ रोक सकती है,
मिटा नहीं सकती।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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