दहलीज़
दहलीज़—
न द्वार है, न दीवार,
बस एक रेखा है,
जो भीतर और बाहर के
हर अर्थ को बाँटती है।
यहाँ माँ की चुप्पी
थाली में परोसी जाती है,
और पिता की निगाहें
छत की कड़ी बन जाती हैं।
यहीं खड़ी होती है बहन,
अँचल में बचपन बाँधकर—
जब पायल के साथ
विदा का स्वर फूटता है।
यहीं से बेटा
पहली बार स्कूल जाता है,
और लौटता है
सपनों की गठरी लिए।
दहलीज़—
जहाँ हर ऋतु दस्तक देती है,
फागुन में रंग
और सावन में सौंधी हवा बनकर।
पर यह भी सच है—
कि दहलीज़ पर
कई बार कुछ सपने ठिठक जाते हैं,
और कुछ मन
अंदर ही भीतर कैद रह जाते हैं।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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