चक्रव्यूह
(नवीन कविता शैली में)
मैं जन्मा था
एक साधारण प्रश्न की तरह
किन्तु घिर गया हूँ
उत्तरों के चक्रव्यूह में।
हर मोड़ पर एक द्वार था,
हर द्वार पर एक पहरेदार—
सवालों से नहीं,
समझौतों से जूझते हुए
मैं अभिमन्यु नहीं था
पर हर दिन मारा गया।
घर में—
चुप्पियों का चक्रव्यूह,
स्कूल में—
अंकों का चक्रव्यूह,
सड़क पर—
पहचान का चक्रव्यूह,
ऑफिस में—
नम्रता की झूठी मुस्कानों का चक्रव्यूह।
हर जगह एक गूंज थी—
‘सिस्टम ऐसे ही चलता है।’
और मैं पूछता रहा—
क्या बदलाव को कोई गली नहीं?
मैंने रिश्तों में भी
एक चक्रव्यूह देखा—
प्रेम, अपेक्षा, ईर्ष्या, तिरस्कार
और अंत में अकेलापन।
मैं लड़ता रहा
बिना किसी कृष्ण के,
बिना किसी रणनीति के।
शब्दों से, दृष्टि से, मौन से—
मैंने भेदने की कोशिश की
इस सदी के इस आभासी
और असली चक्रव्यूह को।
और अब…
जब थक चुका हूँ,
तब एक प्रश्न और जन्मा है—
"क्या कोई अर्जुन भी होगा
जो इस बार
बाहर से नहीं,
भीतर से तोड़े
इस चक्रव्यूह को?"
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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