चैत दुपहरी
चैत की दुपहरी है—
गाँव की देह पर
धूप नहीं,
भूख उतरती है।
धूल से अँटी
पगडंडी के छोर पर
एक स्त्री झुकी है—
सिर पर लकड़ियों का गठ्ठर,
पीठ पर बच्चा,
और आँखों में
दिन का अधूरा सपना।
उसके घाघरे में हवा नहीं,
बस थकान है।
हँसी, अब भी गूँथी है ओठों पर,
पर उसमें रोटी की
गंध नहीं,
संघर्ष का स्वाद है।
खेत की मेड़ पर
एक कृषक,
नरवा के गड्ढे से पानी खींच रहा है—
छाले पड़े हैं हथेलियों में,
पर उसकी निगाह में
अब भी
अन्न के अंकुर फूटते हैं।
धूप उस पर हँसती है,
पर वह चुपचाप
धरती की गोद को सहलाता है—
जैसे वह
माँ नहीं,
सहधर्मिणी हो।
गाँव की गली में
बच्चे नंगे पाँव
कंचे खेलते हैं,
और बरगद तले बैठी
बुज़ुर्ग अम्मा
पास से गुजरती नव-ब्याहताओं को
हल्के स्वर में
कभी हँसी में डाँटती,
कभी कामचोरी पर टोकती,
तो कभी
अपना बीता जीवन सुना देती है।
उनके शब्दों में
कभी कटाक्ष होता है,
तो कभी माँ जैसी छाया—
जैसे अनुभव
नई पीढ़ी से
धीरे-धीरे
संवाद कर रहा हो।
चौराहे पर रखे मटकों में,
भरकर मीठा कुएँ का पानी,
कुछ किशोर, हर भोर उठकर
छाँव बाँटने निकल पड़ते हैं।
बाँस की छायाओं तले,
वे रख आते हैं—
माटी के घड़े,
जिनमें धड़कती है गाँव की करुणा।
जब धूप देह को छीलती है,
और होंठों पर प्यास बिखरती है,
तब वही प्याऊ—
घूँट-घूँट
जैसे जीवन का गीत गाते हैं।
उन मटकों में
सिर्फ पानी नहीं होता—
माँ की ममता,
धरती की ठंडक,
और
संवेदनशील मन का अनकहा श्रम
उतरता है हर घूँट में।
आसमान तपता है,
पर उन मटकों में
अब भी ठंडक बची रहती है—
जैसे गाँव,
हर बार चैत से लड़कर
फिर मुस्कुराना सीख जाता हो।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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