बिरसा मुंडा: एक आदिवासी नायक, एक "उलगुलान" का प्रतीक और आधुनिक भारत की चेतना
अमरेश सिंह भदौरिया
बिरसा मुंडा, भारतीय इतिहास के उन चुनिंदा व्यक्तित्वों में से एक हैं, जिन्होंने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में अपनी अहम भूमिका निभाई, बल्कि अपने समुदाय के अधिकारों, संस्कृति और अस्मिता के लिए भी आजीवन संघर्ष किया। उनका नाम सुनते ही ‘उलगुलान’ (महान विप्लव) की गूंज सुनाई देती है, जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उसके सहयोगी ज़मींदारों के खिलाफ आदिवासी जन-जागरण का एक प्रबल प्रतीक बन गया।
15 नवंबर, 1875 को तत्कालीन बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र (अब झारखंड) के खूंटी ज़िले के उलिहातू गाँव में जन्मे बिरसा, अपने लोगों के लिए ‘भगवान’ और ‘धरती आबा’ (पृथ्वी का पिता) बन गए। उनका जीवन, संघर्ष और शहादत न केवल आदिवासी समाज के लिए बल्कि पूरे भारत के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
प्रारंभिक जीवन और शोषण की समझ
बिरसा मुंडा का बचपन बेहद गरीबी और अभावों में बीता। उनके माता-पिता, सुगना मुंडा और करमी हातू, खेतिहर मज़दूर थे और उनका परिवार अक्सर काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाता रहता था। इस दौरान बिरसा ने आदिवासी जीवन की कठोर सच्चाइयों को बहुत क़रीब से देखा।
उन्होंने महसूस किया कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन, मिशनरियों और बाहरी ज़मींदारों के बढ़ते प्रभाव के कारण आदिवासियों की पारंपरिक जीवनशैली, उनकी ज़मीन, जंगल और जल पर उनके अधिकार बुरी तरह प्रभावित हो रहे थे। ‘दिक्कू’ (गैर-आदिवासी) कहे जाने वाले इन बाहरी लोगों ने आदिवासियों की सरल और सामुदायिक जीवनशैली को बिगाड़ना शुरू कर दिया था।
बिरसा ने कुछ समय तक चाईबासा के जर्मन मिशनरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। यह वह दौर था जब उन्होंने मिशनरियों के सामाजिक और धार्मिक प्रभाव को समझा, और साथ ही ब्रिटिश न्याय प्रणाली की खामियों तथा आदिवासियों के प्रति उसके भेदभावपूर्ण रवैये को भी पहचाना।
उन्होंने देखा कि किस प्रकार ब्रिटिश कानून आदिवासियों के पारंपरिक कानूनों और प्रथाओं को कमजोर कर रहे थे और किस प्रकार उनकी ज़मीनें छीनी जा रही थीं। यह अनुभव बिरसा के भीतर अन्याय के प्रति गहन असंतोष और विद्रोह की भावना को जन्म देने वाला था। उन्होंने अपनी शिक्षा का उपयोग अपने समुदाय के हितों के लिए करने का संकल्प लिया।
आध्यात्मिक चेतना और 'बिरसाइत' धर्म का उदय
बिरसा मुंडा सिर्फ एक राजनीतिक विद्रोही नहीं थे, बल्कि वे एक गहरे आध्यात्मिक व्यक्ति और समाज-सुधारक भी थे। 1890 के दशक में, बिरसा ने एक आध्यात्मिक जागरण का अनुभव किया। उन्होंने दावा किया कि उन्हें भगवान से निर्देश प्राप्त हुए हैं और उन्हें अपने लोगों को एकजुट करने एवं विदेशी शक्तियों के शोषण से मुक्त करने का दिव्य कार्य सौंपा गया है।
उन्होंने ‘बिरसाइत’ नामक एक नए धर्म की स्थापना की, जो एकेश्वरवाद पर आधारित था और जिसमें नैतिक शुद्धता, सादगी और समुदाय के प्रति समर्पण पर ज़ोर दिया गया था।
बिरसाइत आंदोलन ने आदिवासियों को शराब, चोरी, अंधविश्वास, पशु बलि और जादू-टोना जैसी कुरीतियों से दूर रहने का उपदेश दिया। उन्होंने अपने अनुयायियों को साफ़-सफ़ाई रखने, तुलसी का पौधा लगाने और पारंपरिक मुंडा धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करने के लिए प्रेरित किया।
बिरसा ने यह भी कहा कि ब्रिटिश शासन और मिशनरियों के कारण आदिवासियों ने अपनी संस्कृति और पहचान खो दी है, और उन्हें अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहिए।
यह आंदोलन सिर्फ एक धार्मिक सुधार नहीं था, बल्कि यह आदिवासियों के भीतर एक मज़बूत सामाजिक-सांस्कृतिक पुनरुत्थान भी था।
हज़ारों की संख्या में आदिवासी, विशेष रूप से मुंडा और उराँव समुदाय के लोग, बिरसाइत धर्म से जुड़े और बिरसा को अपना ‘भगवान’ मानने लगे। यह आंदोलन आदिवासियों को एकजुट करने और उन्हें एक साझा पहचान व उद्देश्य प्रदान करने में महत्वपूर्ण साबित हुआ।
‘उलगुलान’ – महाविद्रोह का बिगुल
1895 का वर्ष बिरसा मुंडा के आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इसी वर्ष उन्होंने अंग्रेजों और ज़मींदारों के ख़िलाफ़ अपने ‘उलगुलान’ (महान विप्लव) की शुरुआत की।
इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य ‘अबुआ दिशुम, अबुआ राज’ (हमारा देश, हमारा राज) के नारे के साथ जल, जंगल और ज़मीन पर आदिवासियों के पारंपरिक अधिकारों को पुनः स्थापित करना था। बिरसा ने आदिवासियों को लामबंद किया और उन्हें ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने के लिए तैयार किया।
उनके नेतृत्व में, आदिवासियों ने पारंपरिक हथियारों जैसे तीर-कमान, कुल्हाड़ी और तलवारों से लैस होकर अंग्रेजों और उनके भारतीय सहयोगियों पर हमला किया। उन्होंने ब्रिटिश पुलिस चौकियों, मिशनरी संस्थानों और ज़मींदारों के घरों को निशाना बनाया।
यह कोई साधारण विद्रोह नहीं था; यह आदिवासियों के सदियों के दमन और शोषण के खिलाफ एक सामूहिक चेतना का विस्फोट था। बिरसा के अनुयायियों में अटूट विश्वास था कि बिरसा के पास अलौकिक शक्तियाँ हैं और वे उन्हें ब्रिटिश गोलियों से बचा सकते हैं।
‘उलगुलान’ का सबसे बड़ा और निर्णायक टकराव 1900 की शुरुआत में हुआ, जब बिरसा मुंडा और उनके हज़ारों अनुयायियों ने खूंटी के पास डोम्बारी पहाड़ी पर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। इस युद्ध में सैकड़ों आदिवासी शहीद हुए, लेकिन उन्होंने अपनी बहादुरी और दृढ़ संकल्प का परिचय दिया।
अंग्रेजों ने बिरसा की गिरफ्तारी के लिए 500 रुपये का भारी इनाम घोषित किया, जो उस समय एक बड़ी राशि थी।
गिरफ्तारी और शहादत
अंग्रेजी हुकूमत, बिरसा मुंडा के बढ़ते प्रभाव से घबरा गई थी। उन्होंने बिरसा को पकड़ने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। अंततः, 3 फरवरी 1900 को बिरसा मुंडा को जमकोपाई जंगल में गिरफ्तार कर लिया गया, जब वे अपने कुछ साथियों के साथ सो रहे थे। उन्हें राँची जेल में बंद कर दिया गया।
9 जून, 1900 को, मात्र 25 वर्ष की अल्पायु में, बिरसा मुंडा का राँची जेल में निधन हो गया। अंग्रेजों ने उनकी मृत्यु का कारण हैजा बताया, लेकिन आदिवासियों और कई इतिहासकारों का मानना है कि उनकी मृत्यु संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी और संभवतः उन्हें ज़हर दिया गया था।
उनकी मृत्यु ने एक युग का अंत किया, लेकिन उनके द्वारा जलाई गई चिंगारी कभी बुझी नहीं।
विरासत और महत्व
बिरसा मुंडा का निधन भले ही कम उम्र में हो गया, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है और प्रेरणादायक है। उन्होंने आदिवासियों को संगठित किया, उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा दी और अपनी संस्कृति व पहचान को बचाने के लिए जगाया।
उनके आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार को आदिवासियों के अधिकारों पर ध्यान देने के लिए मजबूर किया। छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट (1908), बिरसा मुंडा के आंदोलन का ही परिणाम था, जिसने आदिवासियों की भूमि को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने पर प्रतिबंध लगाया।
बिरसा मुंडा को भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक महान नायक के रूप में याद किया जाता है। उन्हें भारतीय संसद के संग्रहालय में स्थान दिया गया है, जो किसी भी जनजातीय नेता को दिया गया एकमात्र सम्मान है।
उनके जन्मदिन, 15 नवंबर को, झारखंड राज्य की स्थापना हुई, जो उनके योगदान को एक विशेष श्रद्धांजलि है। भारत सरकार ने इस दिन को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में घोषित किया है।
बिरसा मुंडा सिर्फ एक विद्रोही नेता नहीं थे; वे एक समाज-सुधारक, आध्यात्मिक गुरु और दूरदर्शी नेता थे, जिन्होंने आदिवासियों के लिए एक बेहतर भविष्य का सपना देखा था। उनका जीवन और उनका ‘उलगुलान’, हमें यह याद दिलाता है कि न्याय और समानता के लिए संघर्ष कभी समाप्त नहीं होता, और अपनी जड़ों से जुड़े रहना कितना महत्वपूर्ण है।
वे आज भी लाखों लोगों के लिए एक प्रतीक हैं, जो अपने अधिकारों और सम्मान के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनका नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है, जो हमें साहस, बलिदान और आत्म-सम्मान की शिक्षा देता है।
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