अर्धांगिनी
अर्धांगिनी—
केवल अर्ध नहीं,
वह पूर्णता की व्याख्या है,
सृजन का आदि स्रोत,
संपूर्ण अस्तित्व की आधारशिला है।
वह मात्र गृहिणी नहीं,
गृह की आत्मा है,
जिसके स्पर्श से
ईंट-पत्थर का ढाँचा
सजीव हो उठता है।
वह अन्न नहीं,
वह अन्नपूर्णा है,
जिसके श्रम से थाली भरती है,
और आत्मा तृप्त होती है।
वह मौन नहीं,
वह मधुर संवाद है,
जिसके शब्दों में
परिवार की धड़कनें बसी होती हैं।
वह परछाईं नहीं,
प्रकाश है—
जो हर अंधकार को
अपनी आभा से हर लेती है।
अर्धांगिनी—
सिर्फ़ संबोधन नहीं,
समानता का संकल्प है,
संवेदना की सहचरी,
संघर्ष की संबलिनी है।
वह हाथों की चूड़ियाँ नहीं,
हृदय की दृढ़ता है,
जो टूटकर भी
दूसरों को समेटने का साहस रखती है।
वह पीछे नहीं चलती,
साथ चलती है,
कभी मार्गदर्शक बन,
कभी मौन प्रेरणा बन।
और फिर भी,
उसे 'अर्ध' कह देना
उसके अस्तित्व के साथ
अन्याय है।
अर्धांगिनी—
पूरे ब्रह्मांड की संगिनी है,
जिसे समझने के लिए
हृदय में श्रद्धा
और दृष्टि में समानता चाहिए।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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