अंगद का पाँव
मैं अंगद का पाँव हूँ—
न अडियल हूँ,
न अभिमानी।
बस सत्य की ज़मीन पर
संकल्प की कील हूँ।
लंका की राजसभा में
जब शब्दों की तलवारें चमकीं,
और अहंकार ने
धर्म को ठुकरा दिया,
तब मैंने नहीं हिलने की
जिद नहीं—
आस्था की अचलता दिखाई।
मैं प्रतीक हूँ
उस प्रतिरोध का
जो युद्ध नहीं चाहता,
पर अन्याय के सम्मुख
झुकता भी नहीं।
हर युग में
जब-जब सत्ता मदांध हुई,
मैं वहीं गड़ा रहा—
कभी किसी संत की वाणी में,
कभी किसी किसान की जमीं पर,
कभी किसी स्त्री के आत्म-सम्मान में।
मैं अंगद का पाँव हूँ—
दृढ़ता का नाम,
जो कहता है—
चलो संवाद करो,
पर अगर झूठ के चरण बढ़े,
तो मैं फिर वही बनूँगा
जो न हिला,
न डिगा—
केवल धर्म की धरती पर
एक सत्य बिंब बन टिका।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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