अफ़वाह
वह आती नहीं—
घुस जाती है कानों में
जैसे साँप का फुँकारा
या
बीच बाज़ार में
गिरा कोई पत्थर
जिसकी गूँज से
भीड़ दौड़ पड़ती है
बिना देखे, बिना सोचे।
अफ़वाह—
किसी सच्चाई का छाया-पात्र,
अधकचरी बातों का बाज़ार,
जो सच से तेज़ दौड़ती है
और
झूठ को श्रृंगार देती है।
वह
कभी मंदिर की घंटियों से फूटती है,
तो कभी मस्जिद की दीवारों से टकराती है,
और लोग
अपने-अपने विश्वास की तलवारें निकाल
कटने लगते हैं
किसी और के इशारे पर।
अफ़वाह
कभी कोई नाम लेती है,
कभी कोई चेहरा बनाती है,
पर अंत में
छीन लेती है किसी की नींद,
किसी की ज़िंदगी,
या
किसी का वजूद।
सच के पाँव
धीरे चलते हैं,
पर जब चलते हैं—
अफ़वाह का चेहरा
आईने में बेनकाब हो जाता है।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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