Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

आरक्षण की बैसाखी

 

आरक्षण की बैसाखी

चल पड़ा था जीवन की दौड़ में
अपनी हड्डियों के दम पर।
न जाति की बैसाखी थी,
न सत्ता का तिलक।
बस माँ की रोटियाँ थीं,
और पिता की आँखों की उम्मीद।

पर भैया,
जब मेरिट से पहुँचा द्वार तक,
तो कह दिया गया—
"पंक्ति में खड़े रहने का
अधिकार तुम्हें नहीं,
क्योंकि तुम्हारा नाम
इतिहास के घावों में दर्ज नहीं।"

मैं चुप रहा।
कहीं कोई ‘संविधान' मेरी बात नहीं कहता,
कहीं कोई 'बाबा' मेरे लिए संघर्ष नहीं करता।
मेरे हिस्से का सूरज
हर बार कोटे के बादल छीन ले जाते हैं।

हास्यास्पद है यह —
कि मुझसे कहा जाता है —
"तू अभिजात्य है, तुझे क्या कष्ट!"
जबकि मेरी जेब में तो
कभी पूरी किताब खरीदने के पैसे भी नहीं होते।

पर जिनके पास
दादी के खेत,
पिता की कुर्सी,
और माँ का शहर भर का नेटवर्क है,
वे 'पिछड़े' कहलाते हैं —
और मैं — ‘सुविधा संपन्न भोगी’।

कभी-कभी लगता है,
कि मैं योग्यता का अपराधी हूँ।
मेरी प्रतिभा पर
आरक्षण का कोड़ा पड़ता है,
और मैं हर बार
‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर
पीछे ढकेल दिया जाता हूँ।

कितना अजीब है,
एक देश में —
जहाँ भीख मांगना अपराध है,
वहाँ कोटा मांगना अधिकार है।

©®अमरेश सिंह भदौरिया

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ