Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मृगमरीचिका

 

 

सब भागे जा रहे हैं
सब भागे जा रहे हैं
मै, तुम, ये, वो
सब भागे जा रहे हैं
कोई घिसट रहा है कोई रेंग रहा है
कोई लुड़क रहा हैकोई पुड़क रहा है
कोई भटक रहा है कोई चल रहा है
कोई नाच रहा है कोई दौड़ रहा है
सब बदहवास से हैं सब हडबड़ाए से हैं
और भागे जा रहे हैं
उलट पुलट करचले जा रहे हैं
बस चले जा रहे हैं
किसी ना मालूम सी दिशा मे
किसी अनजानी सी मंजिल की तलाश मे
सोचते हैं कि गर ये मिल गया
तो समझो सारा जहां मिल गया
बस ये काम हो जाये
बस और कुछ नहीं चाहिए
जब शुरुआत होती है
तो मंजिल कुछ और होती है
मंझदार मे या किसी मोड पे
मंजिल बदल जाती है
जब तथाकती मंजिल पर पहुँच जाते हैं
तब मन यह सोचने पर विवश हो जाता है
क्या इसी मंजिल की तलाश मे
आज तक भटक रहे थे
क्या यही थी वो मृगमरीचिका
वो आपाधापी वो अंधी दौड़
जिसके लिए किए थे जिंदगी से ना जाने कितने समझौते
परायों को ही नहीं अपनो को भी दिये ना जाने कितने धोखे
सोचते थे जब यह मंजिल मिल जाएगी
तो जैसे सारा जहां मिल जाएगा
ये जमीन मिल जाएगी आसमा मिल जाएगा
सारे जमाने की खुशियाँ मिल जाएंगी
सारे सपने सच हो जाएँगे
सारे अरमान पूरे हो जाएँगे
चमन की बहारें मिल जाएंगी
जीने के सहारे मिल जाएँगे
चाँद और तारे मिल जाएँगे
गगन के सारे मिल जाएंगे
पिपासा सुप्त हो जाएगी
लालसा लुप्त हो जाएगी
आशंकाएँ विलुप्त हो जाएंगी
सब कुछ प्राप्त हो जाएगा
मन संतृप्त हो जाएगा
आत्मा तृप्त हो जाएगी

 

 

 

अमरनाथ मूर्ती

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