Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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श्री शंकराचार्यो विजयतेतरोंम् प्रात: स्मरणीय धर्मसम्राट् अनन्त श्री समलंकृत श्री मज्जयोतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती जी महाराज ज्योतिर्मठ बदरिकाश्रम(हिमालय) पत्रांक-- दिनांक24/8/2007

इस अवनितल पर प्रत्येक प्राणी सदा सर्वदा सतत सुककामित होकर मंगल मय जीवन व्यतीत करना चाहता है पर एतद्

द्वय निर्गत स्त्रोत

से सुविજ્ઞાत न होकर अभीप्सा राहित्य का अनुभव करता है क्यों कि यह अध्यात्म कामी जन मनसा सुपथ में नियोजित

होकर उस-

अध्यात्म पाथेय को प्राप्त करते हैं । लेखक की वृत्ति से लगता है कि प्रत्येक जन इस परम पाथेय से वंचित न रहें इस लिए श्री सुखमंगल- सिंह जी ने सब को सुख एवम् मंगल प्रद "सुपाथेय" की रचना बेद शास्त्र पुराणादि से अन्वेषण कर पुस्तकाकार के रूप में

प्रस्तुत कर दिया

है हमारी मंगल कामना एवं शुभाशीर्वाद है यह "सुपाथेय" निर्वाध प्रकाशित होकर जन मानस का सु पाथेय सिद्ध होगा ।

इत्यलम् आજ્ઞया ,श्री चरणानाम् शिवार्चनोपाध्याय––––—----------------------------------------------------------
(शुभाशंसा) श्री सुखमंगल सिंह द्वारा समय-सनय पर लिखे गये निबन्धों का संग्रह"सुपाथेय" देखने का अवसर मिला । दूर

संचार विभाग के एक कर्त्वयनिष्ठ कार्यकर्ता तथा समय मिलने पर साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सहभागिता की

चेष्टा करने वाले साहित्यानुरागी के रूप में मैं इन्हें बहुत दिनों से जानता था ।कभी-कभी कुछ तुकबंदियाँ भी इनसे सुनने को मिलीं किन्तु ये लगातार समय निकालकर कुछ न कुछ लिखते रहते हैं, प्रस्तुत संग्रह द्वारा यह जानकर मुझे हर्षनि-

श्रित विस्मय हुआ ।

इस संग्रह के निबन्धों से रचनाकार की आस्तिकता, सत्संगप्रियता, अपनी संस्कृति, सभ्यता और परम्पराओं के प्रति निष्ठा, अपने परिवेश और पर्यावरण की शुद्धता के प्रति जागरूकता तथा लोकमंगल की कामना सर्वथा स्पष्ट है ।काशी नगरी के प्रति श्रद्धा तथा इसे जानने,समझने और मौलिक स्वरूप में प्रतिष्ठित देखने की चिन्ता भी इन निबन्धौं से स्पष्ट है ।यही कारण है कि संग्रह में प्राय:दस निबन्ध काशी के अतीत-वर्तमान एवं माहात्म्य से सम्बद्ध हैं ।अच्छा होता यदि

लेखक कासी संबंधी अध्ययन एवं अनुसन्धान में और गहराई के साथ प्रवृत्त होता और पूरी पुस्तक काशी से सम्बन्धित होती

।उम्मीद है कि यह कार्य लेखक की भावी योजना के अन्तर्गत अवश्य सम्मलित होगा । काशी का अनुरागी भावुक भक्त होता ही है । सुखमंगल जी के इस संग्रह में भक्ति, अध्यात्म, कर्म,જ્ઞાन, योग और धार्मिक पर्वों पर लिखे गये निबन्धों की भी अच्छी संख्या है । एक निबन्ध भाषा साहित्य और हिंदी भाषा शीर्षक भी है । ये सभी निबन्ध जनसामान्य के लिए જ્ઞાनवर्धक हैं और इनमें लेखक का उद्देश्य बहुत निर्मल एवं पवित्र है । एक

सच्चे जिજ્ઞાसु की तरह उसने जितना खोजा और जाना है, उसे पाठकों तक संप्रेषित करना वह अपना कर्तव्य मानता है ।

मुझे विश्वास है, पाठक 'सुपाथेय' का स्वागत करेंगे । लेखक के रचनात्मक प्रयास इसि प्रकार निरन्तर जारी रहे,

यह ईश्वर से मेरी प्रार्थना है।

हस्ताક્ષर -जितेन्द्र नाथ मिश्र

बुद्धपूर्णिमा2065 वाराणसी

रीडर अध्यક્ષ- हिंदी विभाग

(20 मई2008) डी0 ए0 वी0 डिग्री कालेज,---------------------------------------------------------

(सुपाथेय)-

किशन महाराज कबीर चौरा कंठेमहाराज मार्ग वाराणसी-221221 उत्तर प्रदेश भारत फोन0542-2214121 श्री सुखमंगल सिंह द्वारा लिखित "सुपाथेय" हमने पढा इन्होंने जो अनेकों वेद पुराणों आदि दुर्लभ पुस्तकों का જ્ઞાन व प्रेरणा

अपने लेख में संग्रहित किया है वह सराहनीय है । जिस प्रकार सुर एवं असुरों ने समुद्र मंथन करके अमृत रस निकाला था ठीकवैसे ही इन्होंने वेद, पुराण व ग्रन्थों का रस निकाल कर इस पुस्तक को ऐसा समृद्ध किया है कि जो इसे अध्ययन करे- गा उसे अमृत रस का आभास होगा । माँ शारदा से प्रार्थना है कि वह भविष्य में भी इन्हें श्रेष्ठ रचनाकारों के रूप में अग्रसर करें यह मेरी शुभकामना एवं शुभाशीर्वाद सद्भावनाओं सहित ! हस्ताક્ષर-

(किशन महाराज)------------------------------------------------------------

अनुशंसा श्री सुखमंगल सिंह जी का"सुपाथेय" निबंध संग्रह के सारे 45 निबंध को पाठ करना इस अधीन के लिए अत्यंत

सौभाग्य है।

काशी एवं वाराणसी नगरी के प्रति ,लेखक का अत्यंत श्रद्धा एवं व्यथा पूरे निबंधों में फैला पाया गया। वर्तमान समाज में -

संस्कारों के नाम पर चलता हुआ सामाजिक व्यवस्था पर लेखक के व्यथा को दर्साते हुए उन्होंनें वेदों,पुराणों,आध्यात्मिक साहित्यों का उपयोग किया है,और मानव जीवन के सार्थकता की ओर ले जाने को भी मार्ग दर्शन किया।

अधर्मों का साथ देने वाले पाखंडियों को सबक सिखाने वाले धार्मिकों को, धर्म के सामने लाने के लिए श्री सुखमंगल सिंह

का यह प्रयास वास्तव में अत्यंत उपयोगी साबित होगा, ऐसा मैं आशा करता हूँ।

लेखक ने सत्य, प्रेम और सद्भावना को "पाथेय" बनाकर समाज सुधारने के लिए जिन गुरुओं का उल्लेख किया है वास्तव

में उन सिद्ध गुरुओं के द्वारा ही"स्वर्गभूमी" की संकल्पना किया जा सकता है अन्यथा"गोविंदपूजन" असंभव है। ऐसा मेरा मानना है।

मुझे आशा है, श्री सुखमंगल सिंह जी का इस अत्यंत उपादेय पुस्तक सारे पाठक के हृदय को अंतर्मन से जीतने में"पाथेय"

हो,सभीओं के द्वारा अद्रुत हो एवं जिજ્ઞાसुओं को गहराई से समझने के, साथ साथ लेखक का अनुसंधान जारी रखने में सहायक होगी।

लेखक के यह रचनात्मक प्रयास सदा के लिए जारी रहें यह मेरा परम पिता परमात्मा एवं भगवती से प्रार्थना है।

दिनांक01/07/2014 हस्ताક્ષर-

मल्लिकार्जुन एम़़ फिल(पी ई),पी जी डी पी आर ,डिप्लोमा एन आई एस मकान नम्बर-5-5-475/51(एल आई जी बी2/एफ5) आन्ध्र प्रदेश हाउसिंग बोर्ड क्वार्टर्स भाग्य नगर कालोनी, एम जे रोड हैदराबाद-500001(आ‍0 प्र0)मोवाइल-09441205ingh 15:40,-----------------------------------------------------------

--- आमुख उसी मानव का जीवन सफल है जो भगवत् परायणता, दैवी सम्पत्ति के गुण, सदाचार, आस्तिकता और सात्विकता

से सम्पन्न है । मानवमात्र का जीवन ऐसे दिव्य भावों से परिपूर्ण हो, एतदर्थ बाबू सुखमंगल सिंह जी ने इन आध्यात्मिक रचनाओं का संकल करके उसे "सुपाथेय"नाम से विभूषित किया है ।

इस दिव्य ग्रंथ के अध्ययन से प्रतिपाद्य सिद्धान्तों के मनन से अन्तर में अलौकिक ज्योति

प्रस्फुटित हो उठती है । एक ओर व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन समुन्नत होता है तो दूसरी ओर समाज का सम्पूर्ण वातावरण श्रेष्ठ गुणों से सुवासित होता है । आज के तमसाच्छन्न समाज में ऐसे दिव्य ग्न्थों के स्वाध्याय की

आवश्यकता है, जिससे इनके आदर्शो की जन मानस में अधिकाधिक प्रतिष्ठा हो । भारतीय शिष्टाचार में गुरु का स्थान सर्वोपरि है ।'गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई । जौं विरंचि संकर सम होई । श्री रामचरित-

मानस के उक्त तथ्य को हृदयंगम करते हुए श्री सुखमंगल सिंह जी ने "सुपाथेय" की संरचना की है । गुरू, सद्गुरू और जगद्गुरू का मंगल स्मरण करके इतिहास , पुराण, स्मृति, संहिता, उपनिषद् आदि धर्मग्न्थों का ही नहीं, धर्मनीति, न्यायमीमांसा एवं वेद- वेदान्त के सार- भाव से सन्नहित 'सुपाथेय' वस्तुत: अनमोल ग्रन्थ है । श्री राम, भरत के भातृत्व भाव के आगे श्री अवध की राज सत्ता का परित्याग वस्तुत:एक ज्वलंन्त उदाहरण है । लोक मर्यादा के आधार पर 'सुभासित' और 'सुपाथेय' में कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं है ।
' गंगा सिन्धु सरस्वतीश्च यमुना गोदावरी, नर्मदा । कावेरी, सरजू, महेन्द्र तनया, चर्मण्यवती, बेदिका ॥' आदि पवित्र नदियों एवं समस्त तीर्थों के तीर्थोदक से आचमन करा कर गंगा जल, तुलसीदल,एवं वेदमाता महाशक्ति, गायत्री माता का

स्मरण कर जय(अपने देश में मिलने वाली प्रतिष्ठा) विजय (दूसरे देश में मिलने वाली प्रतिष्ठा) इन दोनों चढाइयों

को पार कर गंगोत्री में तपोनिष्ठ भगीरथ जैसे सिद्ध ૠषि-मुनियों के कृपा प्रसाद से यह 'सुपाथेय' अपना दिव्य

सौरभ विखेर रहा है ।साधु संत मौलवी सूफी आदि मनीषियों ने आध्यात्म पथ पर विशेष बल दिया है । बिशेषत: वैष्णव पंथही सनातन धर्म है, जिसमेंपरहि"त सरिस धरम नहिं भाई" के अनुसार परोपकारी लोग हमेसा प्रसन्नचोत्त

रहते हैं । रचनाकार ने जीव-शिव काबोध करानर हेतु सगुणऔर निर्गुण परमात्मा का ही नहीं,अलौकिक योग- दर्शन

गीता एवं श्रीमद्भागवत् महापुराण से सांख्य-योग वैदिक -चाओं के माध्यૠम से ब्रह्मचर्य धर्म, वैदिक देवताओं जैसेसूर्य, इन्द्र, वरुण, रुद्र, वायु, अग्नि आदि देवों का आवाहन कर इस पुस्तक द्वारा गागर में सागर भर दिया है । साधन और साधन भक्ति को आधार मान कर प्राणायाम एवं मनो-वैજ્ઞાनिक अष्टांग-योग के माध्यम से रोगादि

दोष निवारण,समय का सदुपयोग, करने के लिये "सहजसुखरासी" अबिनाशी ब्रह्म का पूजन-अर्चन तप- त्याग

तथा कर्मानुसार पाप और पुण्य का विवेचन प्राचीन दार्शनिक सन्तों के सदुपदेश से 'सुपाथेय' को अलंकृत करके समाज को सत्पथ पर चलने का मार्ग प्रशस्त किया है । वृहद् वास्तु -शास्त्र के आधार पर देव-प्रतिष्ठा , ध्वजा

स्थापन, हब्याहुति आदि कर्मकांड विषयक के साथ-साथ चतुर्यगी काल गणना में-- ' प्रगट चारि पद धर्म के, कलि मँह एक प्रधान । येन केन विधि दीन्हें, दान करइ कल्यान ॥

गोस्वामी तुलसीदास जी की कथावस्तु कलिकाल वर्णन श्रीमद्भागवत से 'हरेर्नामैव केवलम्' तथा राहुल सांस्कृत्यायन

के णक्ति योग ने प्रस्तुत ग्रंथ में चार चाँद लगा दिया है । धर्ममत पर प्रकाश डालते हुए परमयोगी महाराज जनक का मोક્ષप्रद उपदेश, सत-रज-तम आदि त्रिगुणातीत योग अनुष्ठान का मार्ग अपना कर श्रुति-स्मृति प्रोक्त पंच महायજ્ઞ पर श्री सिंह जी ने विशेष बल दिया है,क्यो कि पंच महायજ્ઞ हर प्राणी के लिये अति आवश्यक

है । क्यों कि-

यજ્ઞેन यજ્ઞमय जन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्वासन्न । तेह ना कन् महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ॥

'यજ્ઞ से बादल बनता है, बादल से बृष्टि, बृष्टि से अन्न तथा अन्न से सभी प्राणी वर्ग का जीवन है।'

योग के द्वारा देव दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति होती है । अत:'शिवो ऽ हम्' स्वरूप परमात्मा के रहस्य को भाव-भक्ति से जानने हेतु "योग:

कर्मषु कौशलम्" आरणयक, उपनिषदों का જ્ઞાन अनिवार्य है । महापुरुषों के जीवन दर्शन से संसार की नश्वरता

का बोध होता है । प्रस्तुत 'सुपाथेय' में षट्दर्शन का समावेश है । अष्टादश पुराणों का अनुशीलन उनके श्लोकों

की संख्या तथा पुराणों की विशेषताओं का इस ग्रन्थ में समावेश है । वेदों द्वारा सामाजिक एवं नैतिक शिક્ષા , आरोग्य और स्वस्थ रहने के लिये आयुर्वेद, सद्गति के लिये ब्रतोपवास, मुक्ति के लिये काशी वास, राजनैतिक स्तर पर ऐतिहासिक प्रकरण का स्वाध्याय अर्जित करके काशी के प्राचीन शिवलिंगों का नाम इस पुस्तक में आप

सब पायेंगे । जिनका प्रात: स्मरण करके आप सबका जीवन सुख-शांति से भर जायेगा । विशेषत: काशी

वासियों के लिये यह ग्रंथ गौरवान्वित सिद्ध होगा । रचनाकार ने काशी के गूढ़ एवं गोपनीय देवालयों, कुण्डों, पंचनद तीर्थ आदि का वर्णन कर अबिमुक्त काशी की गरिमा को ही नहीं, बल्कि काशी के आंचलिक सिद्धि शक्तिपीठ विन्ध्यवासिनी माता को अपनी श्रद्धांजलि, पुष्पांजलि समर्पित कर माँ से प्रार्थना करते हैं- ' मोहिं पुकारत देर भई, जगदम्ब विलम्ब कहाँ करती हो'! सचमुच श्री सुखमंगल सिंह माँ जगदम्बा की परम कृपा से ही इस रचना को जन-मानस तक पहुँचा पायेे हैं ।श्री मद्बहागवत मन्गलाचरण के सत्य परम धीमहि के सूत्र का अवलोकन कर सन्त रविदास की तरह नन्द नन्दन से

नाता जोड चुके है । अस्तु प्रस्तुत रचना कठिन भगीरथ प्रयास के बाद आप को प्राप्त हुई, आप सभी भाई बहनो

इष्ट मित्रो से अनुरोध है कि आप भी अपने समय का सदुपयोग करे । इस ग्रन्थ को जीवन मे उतार कर अपने समय का सदुपयोग करे । इस ग्रन्थ को जीवन मे उतार कर अपने लाैकिक एव पारलाैकिक जीवन को सफल बनावे । आपके जीवन मे नवीन ज्योति जगमगा उठेगी। त्रय ताप से सर्वथा छुटकारा पा जायेगे । फिर से जीवन शक्ति बढ जायेगी आैर सुख समृध्दि लेकर राम राज्य आ जायेगा तब-

'दैहिक दैविक भाैतिक तापा।' रामराज नहि काहुहि ब्यापा ।। की भाति आप परम शान्ति प्राप्त कर लेगे

तथा श्रुति सभव नाना शुभ कर्म का फल स्वत: प्राप्त कर लेगे । रस छन्द भाषा भाव अलंकार समास व्याकरण आदि से भरपुर

इस पुस्तक से आप सभी भाई बहन लाभ उठावे । एेसी आप सबसे अपेझआ है। अन्त मे संग्राहक एवं रचनाकार परम् आदरणीय सुखमंगल जी को कोटि-कोटि शुभाशीष । सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कशचिद् दु:खभाग् भवेत ॥

ऊँ शान्ति: शान्ति: शान्ति:

आपका कृपाकांક્ષી हस्ताક્ષर श्री रामकमलदास ब्रह्मचारी जी महाराज श्री पंचमुख बीर हनुमान् जी मंदिरझोरी-छपरा; चन्दौली(उ0 प्र0)
ukhmangal Singh

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