Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator
इतनी अधिक आबादी वाले देश में पल पल एक से एक दुःखद दर्दनाक दरिन्दगी से भरपूर घटनाएं घटती रहती है । कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अपराधी आतंकवादी भयानक रूप से वारदात पर वारदात किये जा रहे हैं । ये दुधमुंहे बच्चे तक को नहीं बख्स रहे हैं । मुझे तो अपने शहर के हालात को देख कर भी ताज्जुब लगता है कि जहां दिन दहाड़े लूट हत्या डकैती की घटनाएं घटती रहती है वहां भी किसी चौक चौराहे पर न कोई पुलिस की गाड़ी दिखती है न कोई पुलिस वाला । जबकि पुलिस की भारी तायदाद पुलिस लाइन में भरी पड़ी रहती है । पुरी जनता को व्यवस्था द्वारा अपराधियों के आगे चारा की तरह खुला छोड़ दिया गया है कि आप करो जो भी आपकी मर्जी हो। जिन्हें वोट देकर जनता चुनती है वो कुर्सी के खातिर जनता द्वारा ठुकराए लोगों के साथ मिलकर जनता के मालिक बन बैठते हैं । ऐसे माहौल में किसी से शर्म हया शर्मिंदगी कर्तव्यपरायणता की उम्मीद करना ही व्यर्थ है ।
Sanjay Sinha उवाच
सूखी आंखें
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मुझे इस विषय पर नहीं लिखना था। नए साल की पहली सुबह से पहले के उस हादसे पर बिल्कुल नहीं, जिसमें दिल्ली की एक लड़की आधी रात को स्कूटी से घर लौटते हुए कुछ शराबियों की कार से टकरा गई और शराबी कार में फंसी हुई उस लड़की को घसीटते हुए करीब 12 किलोमीटर तक कार चलाते रहे। अंत में वो मरी हुई लड़की को छोड़ कर फरार हो गए। ये सब विषय सनसनी के होते हैं। मानवीय पहलू इसका अगर कुछ हो सकता था तो सिर्फ इतना ही कि अगर उन लड़कों की कार उस लड़की की स्कूटी से टकरा गई तो उन्हें कार तुरंत रोक कर देखना चाहिए था कि हुआ क्या?
जैसा कि ये भी पता चला है कि उस लड़की की कोई सहेली भी उसके साथ स्कूटी पर थी, जिसने हादसे को होते देखा। इस कहानी का मानवीय पहलू ये होना चाहिए था कि लड़की तुरंत उन्हें रोकने की कोशिश करती, पुलिस को फोन करती। उसे अपनी उस तथाकथित सहेली (सीसीटीवी के मुताबिक दोनों में घर लौटने से पहले झगड़ा हुआ था) को बचाने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए थी। 
पर मेरा क्षोभ, मेरी चिंता आज ये है ही नहीं। 
मेरी चिंता है सरकार की वो व्यवस्था, जो हमारे टैक्स के पैसों पर पलती है।
मैंने आपको बताया है कि मेरा ननिहाल बिहार में आरा शहर है। एक ज़माना था जब आरा के बारे में कहा जाता था कि आरा जिला घर बा, कौन बात के डर बा। मतलब आरा के रहने वाले लोग किसी से डरते नहीं। 
क्यों? क्योंकि वहां अपराध का बोलबाला था। रंगदारी का बोलबाला था। हर मुहल्ले में एक रंगदार होता था जिसे मुहल्ले वाले अपने पैसों पर पालते थे। वो रंगदार, जिनसे पैसे लेते थे, उन्हें दूसरे मुहल्लों के रंगदार से बचाते थे। उनकी रक्षा करते थे। आप ऐसा बिल्कुल मत सोचिएगा कि संजय सिन्हा गुंडागर्दी, अपराध को बढ़ावा देने की बात कह रहे हैं। 
मैं बात कर रहा हूं सुरक्षा की। मुहल्ले के लोग उस गुंडे पर भरोसा करते थे, जिसे वो हर माह रंगदारी टैक्स देते थे। उन्हें यकीन होता था कि चाहे जो हो, जिस गुंडे को वो अपनी मेहनत की कमाई से पाल रहे हैं, वो उनका रक्षक है, बाकी गुंडों से। ये एक तरह का रॉबिनहुड कांसेप्ट था। एक तरह का डाकू कांसेप्ट भी। बहुत पहले जब मनुष्य ने समाज का निर्माण किया होगा तो उसने सोचा होगा कि समाज के नियमों का पालन कराने के लिए किसी को इसकी ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए। जो इस ज़िम्मेदारी को उठाएगा, वो कोई और काम नहीं करेगा। लोग काम करेंगे, वो उसे पैसे देंगे। 
जनता खेती करेगी। व्यापार करेगी। फैक्ट्री में काम करेगी और अपनी कमाई में से कुछ पैसे उन्हें देगी, जो उसके बनाए नियमों को संचालित करवाएंगे। यकीनन यहीं से शुरू हुआ होगा रॉबिन हुड राज। 
रॉबिन हुड एक अपराधी था, जो बंदूक के बल पर अमीर जनता को लूटता था। फिर उसमें से कुछ धन गरीबों के बीच बांट देता था। गरीबों के मन में उसने ये बात बैठा दी थी कि वो उनका मसीहा है। ये अलग बात थी कि रॉहिन हुड का खर्चा लूट के उन्हीं पैसों से चलता था। मुझे लगता है कि रॉबिन हुड की भारी लोकप्रियता को देख कर ही हुए मुहल्ले में गुंडे तैयार हुए होंगे। उन्होंने ये फैलाना शुरू किया कि दूसरे मुहल्ले के गुंडों से वो अपने मुहल्ले के लोगों की रक्षा करेंगे। इस सुरक्षा के बदले वो अपने मुहल्ले के लोगों से टैक्स लेंगे। रंगदारी टैक्स।
अब मेरी शिकायत।
सरकार कोई काम नहीं करती। जनता काम करती है। सरकार सिर्फ चुनाव लड़ती है। जनता नेता से नहीं कहती कि चुनाव लड़ो, नेता खुद ही चुनाव लड़ते हैं। वो जनता से कहते हैं कि हमें वोट दो। जनता वोट देती है। फिर नेता जब चुनाव जीत जाते हैं तो  कहते हैं कि जनता ने उन्हें चुना है, वो अब सरकार हैं, जनता के मालिक है। 
जनता का काम है काम करना। 
सरकार का काम है जनता से टैक्स लेना। जनता अपनी कमाई का बहुत-सा हिस्सा सरकार को देती है, जो ये दावा करती हैं कि  वो रहनुमा है। सरकार नए-नए नियम बनाती है। हमसे-आपसे नए-नए ढंग से पैसे वसूलती है। सरकार का दावा होता है कि वो जो फैसला लेगी, वो सभी को मान्य होना चाहिए। 
सरकार के मातहत ही एक विभाग है पुलिस। 
पुलिस क्यों होती है? हमारी-आपकी हिफ़ाज़त के लिए। गुंडे, बदमाश, चोर, उचक्के, मवाली, धोखेबाज और समाज के उन सभी तत्वों से आपकी रक्षा के लिए, जिनसे आपको खतरा होता है। याद रहे, पुलिस सरकार की व्यवस्था है। उस सरकार की जो असल में आपकी मेहनत के पैसों से वसूले गए टैक्स पर पलती है। ये भी याद रहे कि इस देश में हर व्यक्ति, चाहे वो रिक्शावाला, सब्जी वाला ही क्यों न हो सरकार टैक्स वसूलती है।
 पुलिस उसी की पोषित वो व्यवस्था है, जिसे हर महीने मिलने वाला पैसा हमारी आपकी मेहनत का हिस्सा होता है। सरकार और पुलिस या किसी भी सरकारी महकमे का संचालन हमारे-आपके पैसों से बल पर होता है। उनके घर का खर्चा, उनके बच्चों के स्कूल की फीस, इलाज ये सब हमारे-आपके पैसों से संचालित होता है। 
आज बात पुलिस की। हमारे-आपके पैसों पर पलने वाली पुलिस का काम है हमें समाज के असामाजिक तत्वों से बचाना। और अगर वो इसमें नाकाम रहती है तो फिर उन्हें कोई हक नहीं कि वो पुलिस वाले अपने पद पर रहें और हमारी मेहनत के पैसों पर पलें। 
मेरी शिकायत आज इतनी-सी है कि उस रात दिल्ली में वहशी दरिंदे एक लड़की को अपनी कार से रौंदने के बाद दिल्ली की सड़कों पर लगातार कार दौड़ाते रहे। जैसा कि बताया जा रहा है कि कार लगभग 12 किलोमीटर तक दौड़ती रही। जितना मैंने टीवी पर देखा, अखबारों में पढ़ा उसके मुताबिक उस रात गाड़ी 12 किलोमीटर तक जिन इलाकों से गुजरी उसमें दिल्ली के तीन पुलिस थाने पड़े। उन तीन थानों में करीब नौ पुलिस की गश्ती गाड़ी पड़ी होनी चाहिए थी। पर किसी पुलिस वाले की नज़र इस वहशी घटना पर नहीं पड़ी, जबकि नए साल के स्वागत में दिल्ली पुलिस का दावा है कि वो सारी रात सड़क पर थी।
बस इतनी सी शिकायत है मेरी उस विभाग से, जो हमारे पैसों पर पलती है, उसने उस लड़की की रक्षा नहीं की। 
अगर मुहल्ले का रंगदार किसी व्यापारी या दूसरे नागरिकों की रक्षा किसी दूसरे मुहल्ले के रंगदार से नहीं कर पाता था तो नियमानुसार व्यापारी और लोग उस रंगदार को रंगदारी देना बंद कर देते थे। कहते थे कि तुमने मेरी रक्षा नहीं की, तुम्हारा क्या काम? हम अब नया रंगदार चुनेंगे। बात इतनी ही नहीं होती थी। मैंने ऐसा भी देखा है कि अगर अपने मुहल्ले का रंगदार किसी कारण समय पर दूसरे रंगदार से बचा नहीं पाया तो फिर वो अगले महीने पैसे लेने भी नहीं आता था। वो चुपचाप वहां से खिसक जाता था। उसकी आंखों में शर्मिंदगी होती थी। 
पुलिस का काम है आम नागरिक की रक्षा। पुलिस वाले जिस वर्दी, जिन सितारों को कंधे पर चमका कर, जिस बंदूक को कमर में बांध कर इतराते फिरते हैं, वो हमारे आपकी मेहनत के पैसों के बूते है। उन्हें काम मिला है गुंडों, बदमाशों से हमारी रक्षा का। अगर वो इसमें नाकाम रहे, चाहे जिस कारण, तो कायदे से उस इलाके के थानेदारों को पहले अपना इस्तीफा नैतिक आधार पर सौंप देना चाहिए, जहां घटना घटी। उनकी आंखों में शर्मिंदगी पहले होनी चाहिए। 
गुंडे पकड़े गए, मुमकिन है सजा भी मिल जाए लेकिन मेरा प्रश्न है कि उन्हें कब सजा मिलेगी, जिन्होंने अपने काम को ठीक से अंजाम नहीं दिया? उनसे कौन पूछेगा कि आप कहां थे? क्यों नहीं आपने अपनी ड्यूटी पूरी की? 
उस लड़की के साथ जो हुआ वो अति निंदनीय है। जिन लोगों ने किया वो निंदनीय से अधिक घृणा के पात्र हैं। जो लड़की अपनी तथाकथित सहेली को मरते हुए छोड़ कर भाग गई, वो नफरत के योग्य है। पर पुलिस? उसे संभालने वाला मंत्रालय? 
कभी ऐसा भी समय था कि लाल बहादुर शास्त्री जैसे रेल मंत्री अपने पद से इस कारण इस्तीफा दे देते थे कि उनके मंत्री रहते हुए रेल हादसा हुआ। रेल मंत्री रेल गाड़ी नहीं चलाते थे। वो मंत्रालय चलाते थे। पर उन्हें इस बात का अफसोस था कि उनके राज में रेल हादसा हुआ। लोग मरे। उन्होंने नैतिक ज़िम्मेदारी ली। 
इस तरह के हादसों की ज़िम्मेदारी कोई लेगा? 
मैं अगर सत्ता में होता तो उन वहशी लड़कों को पकड़ने से पहले उन लापरवाह पुलिस वालों को पकड़ने का आदेश देता, उनकी वर्दी पहले छीनता, जिनके इलाके में वारदात हुई। जब तक जिम्मेदारी तय नहीं होगी, आंखों का पानी सूखा रहेगा, किसी को सजा दिलाने, किसी अपराध को सुलझाने का दावा व्यर्थ रहेगा। 
अंजलि की मौत का अफसोस है। उन लड़कों की करतूत पर रोष है। पर पुलिस? शर्मिंदगी है। हमारे पैसों पर पलते हैं, हमारी रक्षा के शपथ पत्र को भर कर सेवा में आए हैं पर करते क्या हैं? 
मैंने आरा में उन रंगदारों को इन पुलिस वालों की तुलना में अधिक जहीन पाया है, जो किसी अपराध से नहीं बचा पाने की शर्मिंदगी में मर-मर जाते थे।
जिनकी आंखों की नमी खत्म हो जाए, वो किसी योग्य नहीं होते हैं।


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