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लिमटी की लालटेन 247

आखिर कब मिलेगा लोगों को उनकी भाषा में न्याय!

सरकारी सिस्टम अगर ईमानदारी से अपना काम करे तो फरियादी क्यों जाएगा कोर्ट!

(लिमटी खरे)

न्यायालयों की लंबी और उबाऊ प्रक्रियाओंन्यायधीशों की कमीबुनियादी ढांचे का अभाव आदि के चलते तारीख पर तारीख को लेकर वालीवुड की एक फिल्म दामिनी में बहुत ही करीने से इन सारी बातों को चित्रित किया गया था। देखा जाए तो देश में प्रजातंत्र के तीन स्तंभों में सबसे वजनदार न्यायपालिका ही हैपर न्यायपालिका का जिस तरह माखौल उड़ना आरंभ हो गया है वह चिंता की बात मानी जा सकती है। हाल ही में भारत के मुख्य न्यायधीश जस्टिस एन.वी. रमन्ना देश की न्याय प्रणाली में व्याप्त त्रुटियों पर अनेक बार अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं।

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पिछले साल 15 अगस्त को उनके द्वारा कहा गया था कि कानून बनाने का काम संसद का है पर कानून बनाते समय संसद में गुणवत्ता पूर्ण बहस का अभाव पूरी तरह देखा जा रहा है। इतना ही नहीं हाल ही मे ं30 अप्रैल को उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने ही यह बात कही कि हमारी सरकार ही सबसे बड़ी मुकदमेबाज है और कई बार सरकार मामलों को जानबूझकर अटकाने का काम करती है। अब 14 मई को जम्मू काश्मीर में उन्होंने कहा कि स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि आम जनता यह महसूस करे कि उनके अधिकारों और सम्मान को मान्यता दी जाकर उनकी रक्षा की गई है।

एक अनुमान के अनुसार देश में इस समय चार करोड़ 80 लाख से ज्यादा मामले लंबित हैं। जिला अदालतों की अगर बात करें तो वहां 22 फीसदी पद रिक्त हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि अदालतों में तारीख पर तारीख मिलने के कारण कई मामलों में लोगों के द्वारा खुद ही कानून हाथ में लेने के मामले भी प्रकाश में आ चुके हैं। जहां तहां अदालत में पेशी पर आए आरोपियों के साथ मारपीट की घटनाएं भी अखबारों की सुर्खियां बनती नजर आती हैं। कई बार तो आरोपियों को पीट पीट कर मार डालने की बात भी सामने आई है।

दरअसल किसी भी मामले में कानून बनाने के पहले जनमत संग्रह के बिना जिस प्रकार की बहस या कवायद का नियम भारतीय संविधान के तहत दोनों शीर्ष सदनों के साथ ही साथ राज्यों की विधानसभाओं में होता हैवह शायद उचित नहीं माना जा सकता है। सदन के द्वारा जो भी कानून देश या प्रदेश के लिए बनाए जाते हैं उसमें चर्चा में भाग लेकर अपना मत देने का अधिकार उस सदन के प्रत्येक सदस्य को होता है। पर आज किसी भी कानून के बनाए जाने के वक्त कितने सदस्य उसके लिए आहूत चर्चा में भाग लेते हैं! शायद एक फीसदी भी नहीं।

हाल ही में एक सम्मेलन में न्याय आम जनता की भाषा में ही होना चाहिए विषय पर एक सम्मेलन का अयोजन किया गया। दरअसलकिसी को दोषी करार दिए जाने के बाद उसे शायद यह बात पता नहीं चल पाती कि किन साक्ष्यों के आधार पर वह दोषी करार दिया गया है। उसे उसके विद्वान अधिवक्ता के जरिए ही यह बात बताई जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि उसकी भाषा में उसे पता ही नहीं चल पाया कि वह क्यों दोषी है!

इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने बहुत ही साफगोई के साथ यह बात कही कि किसी भी देश में सुराज का मुख्य आधार न्याय ही होता हैइसलिए न्याय को जनता से जुड़ा ही होना चाहिए और जनता की भाषा में ही होना चाहिए। जब तक न्याय के आधार को लोग नहीं समझ पाते तो उसके लिए न्याय और राजकीय आदेश में कोई अंतर नहीं होता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस अवसर पर यह भी कहा कि न्याय को त्वरित और सुलभ होना चाहिए। पीएम की यह बात वास्तव में स्वागतयोग्य ही मानी जानी चाहिए।

इस अवसर पर सीजेआई के द्वारा कही गई एक बात गौर करने योग्य है कि अगर तहसीलदार जमीन के सर्वे अथवा राशनकार्ड के बारे में फरियादी की शिकायत पर सही कार्यवाही करता है तो फरियादी न्यायालय का रूख आखिर क्यों करेगा! अगर ग्राम पंचायत सहित स्थानीय निकाय नियमों के अनुसार काम करेंगे तो फरियादी को कोर्ट जाने की क्या आवश्यकता है। जाहिर है कमी कहीं न कहीं है जिसके कारण न्यायालय में मुकदमों का बोझ बढ़ता ही जा रहा है।

इस सम्मेलन में एक बात और निकलकर समाने आई है कि अदालतों में स्थानीय भाषाओं को तवज्जो दी जाए। आज देखा जाए तो उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों में अंग्रेजी को ही अहमियत दी जाती है। सीजेआई एन.वी. रमन्ना का कहना है कि उन्हें इस आशय के अनेक ज्ञापन मिले हैं और अब समय आ गया है कि स्थानीय भाषाओंक्षेत्रीय भाषाओं में कार्यवाही किए जाने की मांग पर विचार किया जाए।

इस सम्मेलन में जितनी भी बातें हुईं उन्हें सारगर्भित तो माना जा सकता है पर प्रश्न वही खड़ा है कि आखिर इन मामलों में कब योजना बनेगीकब उसे अमली जामा पहनाया जाएगा और कब सूबाई विधानसभाओं के साथ ही साथ संसद में इसे पारित किया जाकर कानून की शक्ल दी जाएगी। अब तक यह बात भी सामने आती रही है कि अनेक आरोपियों का आधे से ज्यादा जीवन निरपराध रहते हुए भी जेल की सलाखों के पीछे कट जाता है। अभी तक जो होता आया है उसे नियति मानकर लोगों ने स्वीकार तो कर लिया है पर इस बात की क्या गारंटी है कि भविष्य में इस तरह की बातों को दोहराया नहीं जाएगा!

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(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)

(साई फीचर्स)

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