Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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Anju Sharma

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घूंघट और हिज़ाब दोनों ही का समर्थन नहीं किया जाना चाहिये पर कभी इस नजरिए से भी देखिये कि हिज़ाब पर बंदिश जाने कितनी लड़कियों का जीवन बर्बाद कर सकती है।  वे परिवार जो अपने परिवेश के पिछड़ेपन से लड़ते हुए अपनी लड़कियों को इस शर्त पर बाहर जाने की इजाज़त देते हैं कि हिज़ाब की पाबंदी में कोई ढील नहीं होगी। लड़की खुद को शुक्रगुज़ार महसूस करते हुए आपसे कहती है, हिज़ाब मेरी चॉइस है। वालदैन समाज के एतराजों के जवाब में भी यही सफाई पेश करते हैं, जी हाँ लड़की पढ़ने जाती है पर देखिये न हिज़ाब या बुर्का नहीं छोड़ा। सोचकर देखिये हिज़ाब उस लड़की की आज़ादी या प्रगति के रास्ते का टिकट है। 
  मेरी एक सिख कलीग हमेशा कमर से कृपाण बांधकर रखती थी।  नहीं, हथियार के तौर पर नहीं बल्कि धर्म की एक अनिवार्यता के तौर पर क्योंकि अमृत छककर (एक सिख धर्म की धार्मिक रस्म) उसने पंच ककार (कड़ा, कच्छा, केश, कंघी और किरपाण) धारण किये हुए थे।  जाहिर है वह भी इसे चॉइस का ही नाम देती थी।। शायद यह सचमुच ऐच्छिक रहा हो पर ये भी विचार किया जाना चाहिये कि एक लड़की को धार्मिक आस्थाओं के मामले में क्या सचमुच इतनी छूट हासिल है कि वह चॉइस के हिसाब से चले। 
बहरहाल आपके अनुसार ये इलेक्शन के मद्देनजर प्लॉट किया गया कोई मुद्दा ही सही पर ये बहस बेमानी नहीं। फ़िलहाल यही गुज़ारिश है कि बहुत दुश्वारियों से लड़कर निकलती हैं अल्पसंख्यक लड़कियाँ इनके लिये मुश्किलें और मत बढ़ाइए।  राजनीति या धर्म के नाम पर इनके सपनों की बलि चढ़ जाना कतई तर्कसंगत नहीं।  बुर्के या घूंघट से किसी लड़की का भला नहीं हो सकता पर रूढ़िवादी समाज में इनके सहारे से कोई लड़की आगे बढ़ती है तो उसे मत रोकिये।  पाबंदी कोई हल नहीं।  पाबन्दी से कहीं अधिक किसी भी  पिछड़े समाज को जागरूकता जरूरी होती है।


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