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भारतीय धर्म-दर्शन के उन्नायक:आदि शंकराचार्य---

Shiben Raina


केदारनाथ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आदि शंकराचार्य की मूर्ति का अनावरण किया। कुछेक वर्ष पूर्व कोचिन/केरल यात्रा के दौरान कालड़ी/केरल में बने आदि शंकराचार्य के सर्वप्रसिद्ध मंदिर/स्मारक को देखने का सुअवसर मिला। वह सरोवर भी देखा जहां पर ग्राह ने शंकराचार्य का पैर पकड़ लिया था और माँ ने सं न्यासी बनने की अनुमति दे दी थी।  
भारतीय धर्म-दर्शन के अग्रदूत और सनातन धर्म के उन्नायक शंकराचार्य का जन्म 508ईपूर्व में हुआ था और महासमाधि 477 ई.पूर्व में ली।जन्म केरल  में काल्पी  अथवा 'काषल' नामक ग्राम में हुआ था जो कालड़ी नाम से भी प्रसिद्ध है।  । ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी रोचक है: 
कहते हैं, माता अपने एकमात्र पुत्र को सन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदी-किनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर पकड़ लिया। तब इस अवसर का लाभ उठाते शंकराचार्यजी ने अपने माँ से कहा " माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो अन्यथा यह मगरमच्छ मुझे खा जाएगा "। भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की और आश्चर्य की बात है कि जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे ही तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्य का पैर छोड़ दिया।मान्यता है कि स्वयं भगवान शंकर ने मगरमच्छ का रूप धारण किया था ताकि बालक को संन्यास लेने का मार्ग सुगम हो।    
श्री शंकराचार्य की दृष्टि में विश्व में केवल एक ही सत्य वस्तु है और वह है ब्रह्म। समस्त अवतार उन्हीं की अभिव्यक्तियां हैं। शंकर ने प्रायः सभी देवस्वरूपों का ध्यान और उनकी प्रार्थना की है। यहां तक कि गंगा, यमुना, नर्मदा आदि नदियों में देवत्व की प्रतिष्ठा कर भक्ति भाव से उनका स्तवन किया है।उन्होंने जिस भी देवता का स्तवन किया है, उसे परम पुरूष परमात्मा की ही अभिव्यक्ति माना है। भगवान से अपना दैन्य निवेदन करते हुए वे कहते हैं ‘हे विष्णु भगवान्! मेरी उद्दंडता दूर कीजिये। मेरे मन का दमन कीजिये और विषयों की मृगतृष्णा को शांत कर दीजिये, प्राणियों के प्रति मेरा दयाभाव बढ़ाइये और इस भवसागरसे मुझे पार कीजिये।’
प्राचीन भारतीय सनातन परम्परा के विकास और हिंदू धर्म के प्रचार-प्रसार में आदि शंकराचार्य का महान योगदान है। उन्होंने भारतीय सनातन परम्परा को पूरे देश में फैलाने के लिए भारत के चारों कोनों में चार शंकराचार्य मठों की स्थापना की थी। ये मठ ईसा से पूर्व आठवीं शताब्दी में स्थापित किए गए। ये चारों मठ आज भी चार शंकराचार्यों के नेतृत्व में सनातन परम्परा का प्रचार व प्रसार कर रहे हैं। आदि शंकराचार्य ने इन चारों मठों के अलावा पूरे देश में बारह ज्योतिर्लिंगों की भी स्थापना की थी। आदि शंकराचार्य को अद्वैत परम्परा का प्रवर्तक माना जाता है। 
उनके द्वारा स्थापित चार मठों में रामेश्वरम में श्रृंगेरी मठ, उड़ीसा के पुरी में गोवर्धन मठ, गुजरात के द्वारका में शारदा मठ और उत्तराखंड में ज्योतिर्मठ हैं।इन मठों की स्थापना करने के पीछे आदि शंकराचार्य का उद्देश्य समस्त भारत को  एक सूत्र में पिरोना था।भारतीय जनमानस की भावनात्मक एकता के ये मठ साक्षी हैं। 
३२ वर्ष की अल्प-आयु में सम्वत ८२० ई में केदारनाथ के समीप इस महान योगीश्वर स्वर्गवास हुआ। 
श्रीनगर(कश्मीर) में भी शंकराचार्य के नाम पर एक मंदिर है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर को 371 ई. पूर्व राजा गोपादत्‍य ने बनवाया था, जिसके बाद मंदिर का नाम राजा के नाम पर ही रखा गया था। यह कश्‍मीर की घाटी में स्थित सबसे पुराना मंदिर है। बाद में मंदिर का नाम बदलकर गोपादारी से शंकराचार्य कर दिया गया था क्योंकि आदि शंकराचार्य इस स्‍थान पर कश्‍मीर यात्रा के दौरान ठहरे थे।
(पहला चित्र कश्मीर के शंकराचार्य मंदिर का है।शेष कालड़ी के।)

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